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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१९१

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शिवसिंहसरोज

१७१ शिवसिंहसरोज ३६८ नदि कवि प्राची फूलि रही माधुरी रसाल लता साधु री पलासन धुरधुरी अ नेक रंग बेरे हैं । सीतत सुगंध मंद दच्छिन के पौन मानमोचन नरिंद हरिनाछिन करे हैं ॥ प्रफुलित कुंजे ने गुलाब आलि तोहैिं जोझम को मोहन परत पाँय मेरे हैं । हरें क्यों न बन ततला- य कहा ऐसी रही तन झू में अनगन ठनर्गन तेरे हैं ॥ १ ॥ ३६३० नवखानि कवि प्यारी को बुलाइ चित्रसारी देखिये के मिस लाई वह सखी जहाँ सोचे को धाम है । प्यारे को निहारि परक में मयंकमुखी संफ मानि भाँजी राजी लंकें आति छामें है बेनी ग्रेगनैनी की कुंवर कान्ह गदि लई ऐसी भाँति भई नवखानि अभिराम है । रन की चारु चटकीली परतेंचा कॅचि तम्पयो चढ़ावंत कमान मानो काम है ॥ १ ॥ ३७०नदास ब्रजवासी रामकृष्ण कहिये निसिभोर । अवधईस वे धनुष धरे, वे ब्रजजीवन माखन-चोर ॥ उनके छत्र-mवरसिंहासन भरत, सहन.लछिमन जोर है। उन लकुट, मुकुट, पीतांबर गायन के रंग नन्दकिसी है॥ उन सागर में सिला तराई, उनम राख्या गिरि नख की कोर । नन्ददास प्रभु सब तजि भाकिये जैसे निरतत चंद चकोर ॥ १ ॥ ३७१. परसाद कवि बढ़ी घातसाही ज्यों ही सलिल मलै के बड़े कूड़े राजाराष वे न कीन्हें तेग खरको । देन 'लागे नवल दुलहिया नवरोजन १ गलोचनियों के २ नखरेस के बागी ।४ कसर १५ पड़ती।