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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१९२

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शिसिंहसरोज़ १७३ मैं नीठि-नीढि पीछे सुख हरे धनि घर को ॥ वाही तरधारि वादसाहन साँ कीन्ही रारि भने परसाद अवतार साँचो हर को । दुहूँ दीन जाना जस अकइ कहा ना ऐसे ऊँचे रहे राना जैसे पात बैबर को ॥ १ ॥ नये कान्ह द्वार आली बेग उठि देखौ घाइ) काहू यह बात कही थ—द सुधामई । केतिकौ दिना की हिये तपनि बुझाइवे को हौं हूँ परसांद प्यारे देखन ताँ गई ॥ झूठो सुख सापने हू करन न पाई ऐसी एहो निरदई स्याम तुरत दगा दई । जौत भरि नैन व पूत्ति निहारि देखीं तौलौं नैन छोड़ि नींद वैरिनि विदा भई ॥ २॥ ३७२. पदमाकर भट्ट बाँदावाले भट्ट तिलगाने को बुंदेलखएडवासी कवि सुजसभकासी पद माकर सुनामा हो । जोरत कवित्त बंद छथ्यय अनेक भाँति संस कृत माकृत पढ़े हु गुनग्रामा हो ॥ हय रथ पालकी गयद ग्रह ग्राम चारु आखर लगाइ लेत लाखन की सामा हाँ। मेरे जान मेरे तुम काम्ह हौ जगतसिंहतेरे जान तेरो वह विम्र में सुदामा हाँ ॥ १ ॥ सम्पत्ति सुमेर की, कुबेर की उ पावें कहें तुरत फुटावत विलंब उर धारें ना । कहै पदमाकर उ हेम इय हाथिन के प्रल हजारन को चित्र विचारै ना । गंजगजवडेंस महीप रघुनाथराऊ याही गज धोखे कहूं तो देइ डारै ना । याही डर गिरिजा गजानन्द को गोह रही गिरि ने गरे ते निज गोद से उतारै ना ॥ २ ॥ ( जगविनोद ) औरै भाँति कुंजन में गुजरत मौंभीर औरै भाँति बौरन के औौरन के ले गये । कई पदमाकर चु औरै भाँति गलियान छलिया १ अक्षयवट प्रलयकाल के सागर में नहीं डूबता-ऊपर ही रहता है। २ देने में।३ हाथियों के झुंड के झंड दान करने वाले ४ डिायरही।