पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिवसिंहसरोज १८१ नरक धाम जो तियन को रमत सदा नंर नीच । धमधूसर - मूसर परी है नितंब के बीच ॥ है नितंब के बीच कंवर्दी निकसी नदि काढ़े । दि नदिन रहत तन्यान मनौ डोली के डाँड़े ॥ कहि मचीन कविराय बात मानों नहिं तरके । साँची कहत बनाय कुगति है परिहौ नर ॥ २ ॥ कविता कुर भये कुंअर ऐंजूर भये मालदार सूर भये गृपत औऔर भये जबूरे । दाता भये कृपन अदता कहें दाता हम धनी भये निधन निधन भये गवरे ॥ साँचेन की बात न पत्पात कोऊ जग माँ राजदरबारन खुलैये लोग लबरे । भनत प्रवीन अब छीन भई हिंख्मति सो कलिजुग अदलिबदल डारे सबरे ॥ ३ ॥ ३८२फ्रम कवि महोबेवाले राजत आमी के मद छाके कालकृष्ट कियाँ चंचल तुरंग की समाए नदि काके हैं । पी के हियरा के मृग मनन के थके किंधौं सौतिसाल है के सुखमा के ऐन काके हैं । ॥ परम कहत देखि खंजन था कि स्याम सेत ताके लाल आभा साधिका के हैं। छत्र छपाकर के भूपाल के बलाके चारु चंचल चलाँके नैन वाँके राधिका के हैं ॥ १ ॥ हुरि हुरि ऊरे वेनी चिगुंल नितंबन वे बैरि बेरि घुमड़त बाँघरो घनेरो है । फेरि फेरि फिरत निपट लचकीलो लंक फेरि फेरि ढग फेरि फेरि मुख फेरो है । भुज की हुंलनि औ खुलनि कुचकोरन की चाहि चाहि परमेस भयो चित्त चेरो है । अ िकि कनि भरत घटु ज्यों ज्यों त्यों । याँ मैन के कानि भरत घर्ट मेरो है ॥ २ ॥ १ गुप्त ।२ शर नहीं ।३ न देने वाले 18 भारी।५ घड़ा। ६ शरीर।