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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२४२

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शिवसिंहसरोज श्रीविट्टल गिरिधरन सी निधि अब भक्त को देत हैं विनहि माँगी।१॥ ४७२बिहारी कधि (३ ) गरुड़क़्बाती गति लीन्हे नट नैनन की नाचत थिरकि मित्र कई सुमीर के । छोनी ना छुवत पग अचेल उलंधि जात ताते तेज सु, अगाऊ जाइ तीर के ॥ सोने के सचित साज रतन जटित सारे भनत विहारी रन पैत जे चीर के । मन ते सरिस चलिवे को 'लाई अंग राजत कुरंग ऐसे वाँजी रघुवीर के 1१॥ ४७२. चैताल कवि छपं जीभि जोग अरु भोग जी िसत्र रोग बढ़ावै । जीभि करें उद्योग जीभि कैद करावें ॥ जीभि स्वर्ग ले जाय जीभि सघ नरक दिखावें । जीभि मिलावें राम जीभि सब देह धराई ॥ जीभि ठ एकत्र करि बाँट सिहारे तौलिये । बैताल कहूं विक्रम सुनो जीभि रंभारे बोसिये ॥ १ ॥ टका करै कुलहूल टका पिरदंग वजावे । टना चक सुखपाल टका सिर छत्र धरायें॥ टका माइ अरु बात का भाइन को भैया । टका साहु अरु ससुर टका सिर लाड़ लडैया । ॥ एक टका घिन टकटका होत रात अरु रातदिन। बैताल कहै विक्रम सुनो धिक जीवन इक टका घिन ॥ २ ॥ मरे वैल गरियांर मरै जो कट्टर ट। मरे क़र्कस नारि मरे यह खसम निखडू ॥ ब्राह्मन सो मरि जाय हाथ. लै मदिरा प्यवै1 प्त वही रि जाष कु कुल में दाग लगाने ॥ १ पृथ्वी। २ पहाड़ ।३ घोड़े।