पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
शिवसिंहसरोज

फनिंद जाको देवता डरत हैं ॥ लोभजलपूरन अखंडित अनन्य भदेखें वारपार ऐसो धीर ना धरत हैं । ज्ञानचह्म सत्य जा ज्ञान को जहाज साजि ऐसे भवसागर को विरले तरत हैं ॥ १ ॥ एब कहत विष्णु वसत बैकुंठ धाम शेख कहत शिष जू कैलास सुख भरे हैं । कई राधावल्लभी बिहार बृन्दावन ही में रंपोनैदी कहैं राम अवध से न टरे हैं। ये तो संघ देव एकदेसिक अनन्य मैंने हम तुम संघ आप ठौरन क्यों घरे हैं rचेतन अखंडे जासे कोटिन ब्रह्मांड उद्दे ऐसो परब्रह्म कहाँ सुरनि में परे हैं। २ ॥ घिन भेदन भेदन में जु क मति के अनुसार लही सो लही । नदि वेद-पुरान की रीति कहूंआनरीति की टेक गही सो गही ॥ ससुझायो नहीं समु गुरु को, रु को अपमान नहीं सो लही। यह तामस ज्ञान अनन्य भ: नि शूनख गाँठि गही सो गही ॥ ३ ॥

१४.औध कवि

भूली कि याँ की पीर वाही है जहाँ की भरे नैन झरना की सुधि आये डर वाकी है। चंचला चलाकी करें नट की कला की तैसी दौर चर्चाएं कीं औो ध्रकार खां की है ॥ है न कटु बाकी औध आसरा : निसा की तामें आइ पड़े डाकी पै झकोर पुरैया की है । टर पिहा की करै सेलसमताकी दरें करें उर झाँकी ये पुकार पुरवा की है ॥ १ ॥

१५.अयोध्याप्रसाद शुक्ल गोलावाले

पूरि रही है अनंदविलास संवे विधि सॉ सुख सोभा विरा । फ़ीकत है डग चंचल मीन सो खंजन की गति कौन कि रा । जोधी भले अधरन की लाली ननो रंथि प्रांत उदोत विरा । याँ मध्याह्न को साज सजे संकेत निधान में सिदि राजे 1१। १ मेघ ।२ पुरवाई हवा 1३ दोपहर ।