पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२६३

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२४४
शिवसिंहसरोज

२४४ शियसिंहसरोज नासा वेसरि सुभग नबंन ताठक बिराजे . भगवत ना भाल मॉग 'मोती गो पर । द्वादश खन्न अंग नित्य प्यारी पग ऊपर ॥ २ ॥ .५२५. भगवानदास व्रजवासी प्रद श्रीवल्लभयुत पम कृपाल । तैसेठ श्रीगिरिधर श्रीगोविन्द बातृकृष्ण नयन विसाल ॥ महामोह मददोष दुखी जन प्रकट भये पेट दर्सन ईं । जीवं. अनेक किये किरतारथ कोमल कर धारत पर सीस ॥ जा दर्सन सुर नर को दुर्लभ सरनागत को सुलभ अपार । जन्म मरन भवबन्धन छूटे जिन प्रमुख देख्यो इकवार ॥ श्रीवल्लभ रघुपति श्रीजदुपति मोहनपूरति श्रीघनस्याम । जन भंगवान जा बलिहारी यह सुनिजफातिहारो नाम 1१॥ ५२६ भूधर कवि असोथरवाले (२) म्यान ते कद त भूत अफरे अझार पाइहार पाइ हरषि महंस आई नचिगे । गाइ गाड़ बरन घरंगना बरन लाग चहरे सकल स्वान चरबी के मचिगे ॥ घर अनंत मारे ग्रंगल पठान सेख सैयद अमीर धूप धीर केते पश्चिगे । राइ भगवन्त के खड़े मुखखेत आइ खये ते सहादति ते खेसओड़ेि बंचिगे ॥ १ ॥ ५२७. मान कवि ( १) कीन्हो ना बिलम्ब जब खम्भ गहेिं बाँध्यो बांप प्रकर्ट प्रताप आप भये नरहारी है। कीन्हो नाबिलब जब ग्राह गज प्रति लीन्हो छड़ेि खगराज बेग बिंपत्ति बिदारी है कहै कवि मान बंर बसन बढ़ाइ संख्यो कीन्हो ना घिलम्ष जब द्रौपदी पुकारी है । भई जेरबारी नहिं करिये अठारी अब अंवधबिहारी सुधि लीजिये हमारी है ॥ १ ५ तब ना बिचाय-पांप गीष को सुगति दीनो