पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२६४

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२४५ शिसिंहसरोज तब ना विचारयो पाप गनिका उधारी है । तब ना विचायो पाप सबरी के फल खाए तब ना विचारयो पाप साप तिय झारी है ॥ फहै कवि मान पुनि तब ना विचारयो पाप वानर, निसाचर बनाये अधिकारी है । भई जेरखारी सो भरोसो मोहिं भारी अब अवध विदारी सुधि लीजिये इमारी है ॥ २ ॥ ५२८. मान कवि, बैसवारे के (२) ( कृष्णकरलोलकृष्णखंड भाषा ) दोहा-अटादस से बरस सो, सरस आष्ठदस साल । सुचि सैनी बर वार को, प्रगट्यो ग्रन्थ विसाल ॥ १ ॥ जब लग जग जगमगत भानु सितभा नखतगन । जब लागि गिरि हिमत्रान पुहूमि पवमान प्रवल बन ॥ जब लगि से जलेस आमर अमरेस विराजत । जब लगि हरि हर ब्रह्म ललित लोकन छवि छाजत ॥ जब लग ध्रुव सनकादि सब अरुनादिक नौ अनुज 1 तब लागि नृप वैरीसाल सुख चिरंजीवि चम्पति तेज ॥ १ ॥ जय गजपुख सुख सुमुख सुखद सुखमा सरसावन । जय जग सिद्धि समृद्धि बुद्धि बुधि बर बरसावन ॥ जय मंगल आचरन मंगलावरन विविध विधि । जय वर बरन अडोल कलित कल्लोल कलानिधि ॥ जय सम्-मुवन दुखदुधन-हर अवन डशन गुनगाथ जय ? जय निखिल-नाथ निजनाथ जय जंय जय जय गननाथ जय ॥२॥ ५२६. मेहनर्भट्ट बाँदाबाले कवि पद्माकर के पिता (१ ) अड्डादार ऐंड़दार ओजदार मावदार तरक तराकदार तोरादार तेग स्यान वखतवलंद श्रीनरिंद सभासिंहनंद हिंदपति जालिम तो जस जाहैि जहान ॥ तुम जनि जानौ हम ही से हम और नहीं