पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२९३

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शिवसिंहसरोज
५४१. महाराज कवि

बात चली चलिये की जहाँ फिरि बात सुहानी न गात सुहानो। अपन साजि सके कहि को महराज गयो छुटि लाज को बानो ॥ याँ कर सींगति है वनिता सुनि पीतम को परभात पयानो । आपने जीवन को लखि अंत 8 आयु की रेख मिटाघति मानो 1१॥

५६२ मुरलीधर( २ )

कोऊ न आयो उहाँ ते सखी री जहाँ मुरलीधर मानपियारे । याही गुंदेसे में बैठी हुती उहि देस के पावन पौरि ’ पुकारे ॥ पाती दई घरि छाती ई दरकी डंगिया उर आद भारे ॥ पूछन को पिंय की कुसलात मनो हिय-द्वार कवर उघारे ॥ १॥

५६३मनोहर कवि ( ३ )

दीनदयाल कृपानिधि सागर जानत हौ सघ ही गुम जी की । मति पुनीत हिये निवहै जिन देख दई कहूँ वपु ती की ॥ ऊध उ सास न पावति लै न दुरावति भाउ सदा सब ही की। चाँ नहीं है विचारो मनोहर कीजिये सोई ल जोsव नीकी १॥

५६४ मदनगेपाल कवि

भारी हाभार उरभार त्यों उरोजभार जोवन मरोर जोर दावे दलियत है । परंग-परग पर यहै जिप होत संक टूटि न परत कौन पुन्य फलियत है !। कोऊ कहै खरी खीन कोऊ कहै कटि ही न मदन गोपाल ऐसे चित्त धरियत है । काहू की न मानौ साँक कटुत ही आई नाक ऐसी खीनी लाँक वे उलाँक चलियत है ॥१ ॥

५६५. मोतीलाल कवि अवैलावाले
( भाषागणेशपुराण )

दोहा-जेते जन्म तुम्हार में देह तजे करि भोग । तेते सिर की माल किय, प्रिया तिहरे सोग ॥ १ ॥ १ दूत । २ द्वार पर । ३ व । ४पग-पग ।