पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२९८

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शिवसिंहसरोज २७९ • _ दूलरी तीलरी चौलरी कंठ उरोजन कंडकी मोल से बाढे ॥ रामसहाय विलोकत ही घनस्याम निकुंज के बीच में ठाते । लाभभरी गुखियाँत्रिनेंस मिलि चौविसंमास को घुट काहे ॥ १ ॥ ६०६रामप्रसाद बंदीजन चिग्रामी, रसाल कवि के पिता घेर लियो विरधापन आनि के पाँव चलये चलें न हमारे । आनन सों स्वर सुद्ध कडे नहिं कानन बात सुन न पुकारे ॥ कंपत हैं सब अंग दयानिधि नैन भये दोउ नीर पनारे । दै अपनी दसा पठयो हम गोकुलचन्द को पास तिहारे ॥ १ ॥ ६०७. रामदीन बंदीजन अलीगंजवाले कालि ही सहेलिन में जात हुती जमुना को इत ही ते काह कटु तान अनुराग्यो है । सुनि के स्त्रन लखि नैनन सरूप चाको चपल चितौनि मानो मैन-सर लाग्यो है ॥ भावत न भीर कोड जाइ नहिं तीर कढ सुषि ना सरीर केइ कियो मंत्र जाग्यो है । भले कवि रामदीन मन में विचरि देखो भूत नाहैिं लाग्यो याहि नंदपूत लायो है ॥ १ ॥ ६०८, रामदन त्रिपाठी, टिकमापुर दोहा-जो वाँधी छत्रसाल, हृदय ‘मादि जगतेस । परिपाटी छू नहीं, महाराज रतनेस ॥ १ ॥ ६०६रामलाल कवि मधेम पचीसहू के वैर को निखारति हौं छठप अठारा और पन्द्रह चढ़ाइ के चौबिस बतीस सताईस त्यों , सतावत हैं तातेछिाति सुत सो उठत अकुलाइ के ॥ भले रामलाल प्यारी प्यारे को संदेसो लिखि प्यारे मुख बैन कह पथिक वृझाइ है। जीवत जो चाहें कान्हू, तुर्त मोहिं मिलें आर्नि ना तो नौंक जाती हौं भुmन नतु खाइ के ॥ १ ॥ १ दुशाला । २ यह पक कूट कवित्त है । ३ स्वर्ग ४ विष ।