पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१५
शिवसिंहसरोज
१५
शिवसिंह सरोज

३९. ईश्वरकवि

आये हौ आजु भले बनि मोहन सोहति मूरति मैनमई है।आरस सों, रस सों, उपहास सों, रूप सों, रंग सो डीठि छई है ।। रावरे औठनि अंजन देखत इश्वर मो मति तहे तई है । जानति हौं बहि भावती और सों‌ बोलिचे को मुंह छाप दई है।।१॥ चारिहुं और उदे मुरुचंद की चाँदनी चारू निहार ले री। यह प्रनहिप्यारो अधीन भयो मन माँह विचार विचारि ले री।। कवि ईश्वर भूली गयो जुग पीरिवों या विगरी को सुधरि ले री। यह तो समय बहुराच्यो ने मिले बहती नदी पाय पंखारि ले री ।।२।।

४०. इंदु कवि

ऊँचे घौल मंदिर के अंदर रहनवाली ऊँचे घोलमंदिर के उदर रहती हैं। कंदपानभोगवारी कंद पान करें भोगतीनि बेरखान वाली बिनी बेर खातीं है। मैननारी सी प्रमान मैननारी सी प्रमान बीजन हुलाती ते वे बीजन बुलाती हैं। कहें कवि इन्दु महाराज आज वैरीनारि नगन जडाती ते वे नगन जड़ाती हैं ।।१॥

४१ ईश्वरीप्रसाद त्रिपाठी पीरनगर

   (रामविलास, वाल्मिकीयरामायण का उल्था ).

लहत सकल रिधि सिधि सुखसंपदा हूं- विद्यु-बुद्धि सुमिरि गनेस गौरीनंदनै ।सिंधुरचंदन सूठी सोहतः तिलक लाल चंद वाल भाल नैन देत हैं आनंदने।। एकदंत, भुजगविभूषण परसु पानी, चरीभूज अभय करत दसंबृन्दनै। सुन्दर विशाल तन ईश्वरी सँभांरु मन दयाधन हरन विघन दुख-दंदने ॥ १ ॥ १ धवल श्वेत ।