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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६

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१७
शिवसिंहसरोज
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शिवसिंहसरोज

सों कही न परत छवि आनन झलक चहूं ओर ऐसी छहरे। गहगही पंँचरंग महंमही सोधे सनी लहलही लसै ये लहरिया की लहरे ॥ १ ॥

४५.उदयनाथ

रगमगी सेज पर जगमगी सोभ चारु मनिमय मंदिर मपनि थाह की । उफनाथ तामे प्रानप्यारी अरु प्यारे लाल कोक की कलानि केलि करत सराह की ॥ किंकिनी की धुनि तैसी नूपुर निंनद अमि सौतिन के वाह्नत विषाद बादि गाह की । त्रिभुवन जीत के उछाह की बजति मानों नौवति रसीली मनमथ वाधसाह की ॥ १ ॥

४६उदेश कवि

पंडित कविंदन की वृझि है न कूरनि के कथिक कलावत फिर तान गाने को। कहत उदेश देखि समर सपूतनि को घोड़े के चढैयन को चना ना चवाने को ॥ आदर सो लेत ताहि जौन वाहियाति वके छोड़ि के पुरान वेद धरम के वाने को। जुरिकै गँवारगटा बैठत चौहैट्टा आइ आल्हा के गंवैयां को रुपैया रोज खाने को ।। १ ॥

४७. ऊधोराम संधि

बैठे छगआसन हौ तपत हुतासन ज्यों कारे पीरे होत एजू काहे असकत हौ। दास कैसी सेवा कहूँ दासी मै न होति है तू कहै उधो-राम अंग-अंंग नसकत हो ॥ ऐहैं पिय नीरे धीरे कमल चहैहै सीरे होहुगे प्रसन्न ऐसे काहे ससकत हो । शंकर भवानीनाथ भूतनाथ भैरौनाथ काशीनाथ काहे काज कैसे कसकत हो।। १ ॥

१ किरणें ।२ नूपये का शब्द। ३ चराहा। ४ अग्नि।