पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/४०

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शिवसिंहसरोज

छप्पे ।

तजहु जगत विन भवन भवन तजि तिय विन कीनो । तिय तजि जु न सुख देय सुक्ख तजि संपति हीनो ॥ संपति तजि विन दान दान तजि जहँ न विम्प्रति । विप्र तजहु विन धर्म धर्म तज्जिय विन भूपति ॥ तजि भूप भूमि विन भूमि तजि दीह दुर्ग विन जो बसै । तजि दुर्ग सु केसवदास कवि जहाँ न पूरन जल लसै ।।३॥ सीखे रसरीति सीखे प्रीति के प्रकार सवै सीखे केसौराइ मन मन को मिलाइवो। सीखे सौहैं खान नटतान मुसकान सीखे सीखे सैन वैननि में हँसिवो हँसाइवो।। सीखे चाह चाह सो जु चांह उपजाइवे की जैसी कोउ चाहै चाह तैसी वाहि चाहिवो । जहाँ तहाँ सीखे ऐसी बातैं घातैं ताते तब तह क्यों न सीखे नेक नेह को निबाहिबो ।।४॥ भूपन सकल घनसार ही के घनस्याम कुसुमुकलित केस रही छवि छाई सी। मोतिन की सरि सिर कंठ कंठमाला हार और रूप जोति जोति हेरत हिराई सी।। चंदन चढ़ाये चारु सुंदर सरीर सब राखी सुभ सोभा सखि वसन बसाई सी। सारदा सी देखियत देखौ जाइ केसौराइ ठाढ़ी सुकुमारि सो चुन्हाई में जुन्हाई सी॥५॥

५२केशवदास (२)

आली ऐंड़दार वैठी ज्वानी के तखत पर नैन फ़ौजदार खड़े लखैं चहूं ओरा है। द्वादस हू भूषन के द्वादस वज़ीर खड़े सोलह सिंगार भूप लखैं घ्ग़कोरा है।। रूप को गुमान सीस मुकुट है छत्र चौंर जेवर की नौवति बजति साँफभोरा है । कहै कवि केसौदास आली वरनी न जाति जोवन की जोरा मानौं बादसाही तोरा है ॥ १ ॥

१ सरस्वती। २ चाँदनी।