पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३९

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शिवसिंहसरोज


दोहा-सोरह से बीते बरप, विमल संत सुख पाइ । भई ज्ञानगीता प्रकट, सब ही को सुखदाइ ।।१॥ विदित ओरछे नगर को , राजा मधुकरसाहि । गहिरवार कासीस रवि, कुलमंडन जसु जाहि ॥ २ ।। दापि बघेले को राजु सुखाइगो पाँ परि छुद्र पठान अठानी। केसव ताल ततरंगिनि तोमर सुखि गई सेंगरी बहु वानी ॥ साहि अदाव्दर अर्क उदै मिटी मेघ महीपन की रजधानी । उजागर सागर सी मधुसाहि की तेग चढ़यो दिन ही दिन पानी।।१ ॥ दोहा-वीरसिंह नृप की भुजा, जघपि ओहि के तूलें । एक साहि को फूल सम, एक साहि को सूल ॥२॥

       ( रामअलंकृतमंजरी पिंगल )

दोहा-जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुवैरन सरस सुवृत्त । भूपन बिना न रजई, कविता वनिता मित्त ।।१॥ प्रकट सब्द में अर्थ जहँ, अधिक चमत्कृत होई । रस अरु व्यंगन दुहून ते, अलंकार कहि सोइ ।।२।।

फुटकर

पावैक पच्छी पस्सू नग नाग नदी नद लोक रच्यो दसचोरी। केसव देव अदेव रच्यो नरदेव रच्यो रचना न निवारी ॥ रचिकै नरनाह वली वर वीर भयो कृतकृत्य महोव्रतधारी । दै करतापन आपन ताहि दियो करतार दोउ कर तारी।।१॥ सोभाति सो न सभा जहाँ वृद्ध न वृद्ध न ते जु पढ़े कछु नाहीं। ते न पढ़े जिन साध्यो न साधन दीह दया न दिपै जिन माहीं। स न दया जु न धर्म धरै थरि धर्म न सो जहँ दान बृथाहीं। दान न सो जहँ साँच न केसव साँच न सो जु वसे छलछाहीं।।। १ सप। २ तुल्य । ३ अच्छे वर्ग और अक्षरोंवाली । ४ अग्नि । ५ चौदह । ६ रक्षक । ७ ब्राह्मा ।