पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/४१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४००
शिवसिंहसरोज


पंडित कवि मुल्ला शायर ज्योतिपी और सब गुणवान् मनुष्यों के बड़े क़दरदान थे । इनकी सभा रातदिन विद्वज्जनों से भरीपुरी रहती थी । संस्कृत में इनके बनाये श्लोक बहुत कठिन हैं और भाषा में नवों रसों के कवित्त दोहे बहुत ही सुंदर हैं। नीति-सम्बन्धी दोहे ऐसे अपूर्व हैं कि जिनके पढ़ने से कभी पढ़ने वाले को वृद्धि नहीं होती | फारसी में इनका दीवान बहुत उम्दा है | वाक़यात बावत् वावर बादशाह ने जो अपना जीवन चरित्र तुर्की जवान में आप ही लिखा है, उसका इन्होंने फारसी जवान में तर्जुमा किया है । यह ७२ वर्ष की अवस्था में, 'सन् १०३६ हिज़री में, सुरलोक को सिधारे ॥

श्लोक || नीता नटवन्मया तव पुरः श्रीकृष्ण या भूमिका व्योमा - काशखखांवर विधववस्त्वत्प्रीतयेऽद्यावधि || प्रीतिर्यस्य निरीक्षणे हि भगवत्प्रार्थितं देहि मे नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुनर्मामीहशीं भूमिकाम् ॥ १ ॥ शृङ्गार का सोरठा भाषा || पलटि चली मुसक्याय, दुति रहीम उजियाय प्रति । वाती सी उसकाय, मानौ दीनी दीप की ॥१॥ गई आगि उर लाय, आगि लेन आईजु तिय | लागी नहीं बुझाय, भभ भभक वरि वरि उठै ॥ २ ॥ नीति का दोहा || खीरा सिर घरि काटिये, मलिये निमक लगाय | करुये मुख को चाहिये, रहिमन, यही सजाय ॥ १ ॥

. एक दिन खानखाना ने यह आधा दोहा बनाया— तारान ससि रौन प्रति, सूर होहिं सास गैन । दूसरा चरण नहीं बना सके । रोज़ रात्रि को यह श्राधा दोहा पढ़ा करते थे । दिल्ली में एक खत्रानी ने यह हाल सुन आधा चरण बनाकर बहुत इनाम पाया--- तदपि अँधेरो है सखी, पीव न देखे नैन ॥ १ ॥ ४६ सफ़ा |