पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/४३

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शिवसिंहसरोज


५६.करनभट्ट श्रीमंव्दशीघरात्मज

( रसकलोल )

दोहा—सुमनंवत सोभासदन, बारनचदन विचारि । वितरत फल नित रत चतुर, सुरतरुवर कर चारि ।। १ ॥ पटकुल पाँड़े पहितिया, भारद्वाजीवंस । नुननिधि पाँइ निहाल के, वंदौ जगतप्रसंस ॥ २ ॥ रस धुनि गुन अरु लच्छना, कवित भेद मति लोल। बाल बोध हितकर सदा, कीन्हो रसकल्लोल ॥ ३ ॥ खल खनडन मंडन धरनि, उद्धत उदित उदंड । दलमंडन दारुन समर, हिन्दु-राज भुजदंड ॥ ४ ॥ कवित्त। कंटकिंत होत गात विपिन समाज देखे हरी हरी भूमि हरि हियो लरजतु है । निपट चवाई भाई बंधु जे वसत गाँउ दाँउ परे न कोऊ बरजतु है ॥ एते पै करन धुनि परत मयूरन की चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है । अरजो न मानी तू न गरजो चलति बेर एरे बन वैरी अब काहे गरजतु है ।। १ ॥ भौरन को कंजराज हंसन को मानसर चन्द्रमा चकोरन को करन वितै गयो । व्दजन को कामतरु कान्ह ब्रजमंडल को जलद पपीहन को काहूने रितै गयो ।। दीपनि को दीप हीरहार दिगवालन को कोसन को बासैरेस देखत अथै गयो । छत्ता छितपाल छिति मंडल उदार धीर धरा को अधार जो सुमेरु धौं कितै गयो ॥ २ ॥

५७.करन ब्राह्मण पन्ना वाले

( साहित्यचन्द्रिका )

दोहा—विघनहरन पातकदरन अरिदलदलन अखंड। सुरसिच्छक रच्छाकरन, गनपति सुंडादंड ॥ १ ॥

१ चंचल । २ सूर्य ।