पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/४४

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज

२५ गौरी—हियो सिरावनो, उदित उदार उदंड । जगत विदित छवि छावनो, गनपति मुंडाखंड ॥ २ ॥ वेद खंड गिरि चंद्र गनि, भाद्र पंचमी कृष्ण । गुरुवासर टीका करन, पूरयोग्रन्थ कृतष्ण-1 ३ ॥ कवित्त । सीतल पुखद सुभ सोभा के सुभाये मदी कढ़ी बाल पाई घनी दीपति आमाप ते । कई हिमगिरि में उन्हई-सी जगम- गात करन अनूप रूप जाग उठ्यो आप ते.॥ ऊजरी उदार सुधा धार सी धरनि पर पघिति प्रवाह चरयो तरनि के ताप ते । वरफ न होइ चारो तरफ निहार देख गियो गरि चंद अरविंदन के साप ते ॥ १ ॥ बड़े बड़े मोतिन की लसत नथूनी नाक बड़े बड़े नैन पगे प्रेम के नसन सगें । रूप ऐसी बेसिन में सुंदर नवेली वाल सखिन सह मध्य सोहत जसन स ॥ काँकरी चलायो तहाँ दुरि के करन कान्हू मुरफिक तिरीढ़ी चितं ओट दे वसन सौं। नेक अनखानी सतरानी मुसूफानी . बदन ढंपायो दावि रसैना दसवें साँ ॥ २ ॥ चंदन में लंदन में है न अरबिंद न में कुरु बिंद में न भानुसाथ-वरन में । मोहर मनोहर में कोहर में है न ऐसी गुंजन की पीठ में मजीठ अवरन में ॥ जैसी छवि प्यारी की निहारी मैं तिहारी सौंह लाली यह चरन करन अधरन में। है न गुलनांर में गुलाब गुड़हर हू में इंद्व में न बिंब नरेंगी फरन में ॥ ३ ॥ ५८कादर पिहानीवाले गुन को न पूछे कोऊ औन की बात पूछे कहा भयो दई कलियुग याँ खरानो है। पोथी औ पुरान ज्ञान ठझन में डारि देत चुगुल चघाइन को मान ठहरान है ॥ कादर कहत जासों कs १ जीभ ।२ दांत । ३ अरुण । ४ बीरबलूटी। -