पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/५८

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज ३६ कीरति विमल जाकी सदा गुलजार की । धरमधुरंधर धरा में धरमातम हैं कायथ कलपतरु सोभा दरबार की ॥ २ ॥ ७७. कविय कवि दान विन दरवि निदान ठहरान कौन ज्ञान विन जस अपजस करि करिगे । कविराइ संतन सुभाइ सुने जून के धरमवि ने धन धरा धरि धरिगे ॥ काम आये काहू के ने दाम दुहूँ दीनन धाम गाड़े गाड़े सव गथ गरि गरिगे । वोरि वेरि विरद बड़ाई बेसहूर केते जोरि जोरि कृपन करि मरि मरिगे ॥ १ ॥ ७८. कल्याणदास पद-सुमिरो श्रीविठलेसकुमार । आतिअगाध अपार भवानिधि भयो चाहौ पार ॥ मैं बलि रद्द करनासिंधु कोमल सदा चित्त उदार । गोकुलेस हद वसों मम माल पाल निहाल ॥ माल तिलक न तजी कतईं परी जदषि पुकार । अन्त भक्तन दियो धीरज भये पद दातार ॥ चार जुग में विसद कीरति भहित अवतार । नघकिसोर कल्याण के प्रभु गाऊँ वारम्बार ॥ १ ॥ ७६ कविराम कवि स्याम सरीर भयो कलपद्म मैं हूँ भई आइ प्रेमलता। सो उरझाइ गयो कविराम पै को सुरझावन जोग हता ॥ मन तो बको मुरलीधरसीं मन व्यापि गई तनकी ममता । हम कौन की लाज करें सजनी मेकंत को कंत पिताको पिता ॥ १ ॥ विरोध करो सिगरो झगरो नित होत सुधारस चाटत । मित्र कड़े करनी रिपु की धरनीधर देखि न न्याउ निपटत ॥