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शिवसिंहसरोज


१५५, गोविन्दजी कवि (२)

रंग भरि भरि भिजवत मोरि अँगिया दुइ कर लिहिसि कनक– पिचकखा । हम सन ठनगन करत डरत नहि मुख सन लगवत अतर अगरवा ॥ अस कस वसियत सुनि नँनदी हो फगुन के दिन इदि गोकुल नगरवा । मुहि तन तकत वक़त पुनि मुसिकन रसिक गोविन्द अभिराम लँगरेवा ॥ १ ॥

१५६. गोपनाथ कवि

कहा लिखि पठवों सँदेसो आली ऊधो हाथ उन के तौ मन माँझ बहै वसी खूब री । वारे के बहैवा कान्ह कारे अति सुंग ही के कारी कारी वातै सुनि होत है अजूव री ॥ कहै गोपनाथ प्रान– नाथ जिय ऐसी ठानी जो पै जिय आनी ऐसी गही दाँत दूवं री। कहिवे के सरमी हैं देखिवे के नरसी हैं बड़ेई सुकरमी हैं कूवरी न ऊंवरी ॥ १ ॥

१५७गंगापति कवि

इत हरि फेरि पीठि उत करि टेढ़ी डीठि तव ही सो पंचसर बैठ्यो बाँधि बरकस । छिन छिन छिन भई विथा नित नित नई दुख माँझ नई नई कौन धरै घरकस ॥ गंगापत्ति यहै उर बढ़त अँदेसों एक पठयो संदेस हू न ऐसे हरि करकैंस । इतने पै घाउ करि लोन भुरकावत हौ हम को भभूति ऊंधो कुविजा को जंरकस॥ १ ॥

१५८, गंगादयाल कवि निसगरवाले

हला सी ललाई तखान में सहज जाकी चारु चिकनाई है। समान घृतनिधि के । छीर से धवल नख नीर सी विमल दुति कोमल प्रपद की गोराई सम दधि के ॥ इच्छुरस हूं ते है सरस चरनामृत औ लवनसमुद्र है लोनाई निरवधि के । लागे दिन रात मेरे पद जलज़ात तेरे वैभव दिखात मातः सातऊ उदधि के ।।१ ॥


१ नखरे । २ संपढ़ । ३ बची । ४ कर्कश । ५ कामदार पोशाक।