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यही भाव । कपाल माला से भी है जो होते हुए मृतकवत रहते हैं--अर्थात् अपने जीवन को कुछ समझते ही नहीं ! पराए लिए निज प्राण ह्रणवत समझते हैं ! वही लोग उन के गले का हार हैं !

चिंता भस्म सदृश अपने को निरा निकम्मा नहा अपावन समझो ! तो वुह तुम्हें अपना भूषण समझेगे ! जब तुम सच्चे जी से अपने अपने पापों को स्वीकार करलोगे ! गद-गद सूर से कहोगे कि हे प्रभो ! हम सर्प हैं ! संसार के दिखाने मात्र को ऊपर से चिकने २ कोमल २ बने रहते हैं । पर भीतर ( हृदय में ) विष ( कुवासना ) ही भरा है ! 'सो सम कौन कुटिल खल कामी । तुम से काह छिपी करुना निधि ! सव के अंतरज्ञामी ॥ इत्यादि' कहने ही से वुह तुम्हें अपनावैगे !!! यदि हम को यह अभिमान हो कि हम पूरे नक्षत्र नायक के समान कोर्तिमान हैं ! तो संसार को चाहे जैसी चमक दमक दिखा ले ! पर है वास्तव में कलंकी ! हमारा अस्तित्व दिन २ क्षीण होने वाला है ! ऐसे अहंकारी को भोलानाथ कभी अंगीकार न करेंगे ! उन्हें तो वही प्यारा हैं । वे तो उसी को वृद्धि करेंगे ! उसी को निष्कलंक बनावेगे ! जो शशि सम होने पर भी दीनता स्वीकार करे ! चंद्रशेखर नाम का यह भी भाव है कि 'चंद आहलादने' धातु से चंद्र शुब्द बनता है और सच्चा सुख प्रेम ही में होताहै । एवं नित्य बर्द्धमान, निष्कलंक, अमृत मय होने से द्वितीया के चंद्रमा से प्रेस का सादृश्य भी हैं इस