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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१००

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श्यामास्वप्न

से सब कुछ जान गई थी पर मैं मौन रही। मान गहि लिया और मन चाहता कि कुछ और कहै पर लाज और स्वभाव के वश कुछ नहीं कह सकी। एक दिन वे अचानक मेरे द्वारे आन कढ़े। मैं अपनी अटा पै ठाढ़ी रही––वे मो तन देख हँस पड़े. पर मैं लाज के मारे भौन के भीतर भाज गई. उसी दिन से इन कुचाइन चवाइयों ने मिलि के चौचद पारा. मैं क्या करूँ इस विषय को जभी मन में करो तभी अलहन हो जाता है। मैंने बहुतेरा चाहा कि छिपे पर नर्म सखियाँ कभी कभी ताना मार ही देती थीं। नहाते, आते, जाते सभी मुझे बंक दृष्टि से देखतीं––पर मैं जान बूझ कर अजान बन जाती––पर वे क्या इस बात को न समझ जाती होगीं. इस गाँव में एक से एक पड़ीं थी. अब सुनिए दूसरे ही दिन नौ बजे दिन को सुशीला के हाथ सत्यवती को बुलाकर मेरे पत्र का पलटा उन्होंने दिया. मैंने अपने धन्य भाग मनाए, और उसे पढ़ने लगी. उसमें यह लिखा था.

"आज पहिला दिन है, कि मैं तुमको लिखता हूँ इसी से भूलचूक होगी क्षमा करना. पहले तो मैं इसी बात में अटक गया कि तुम्हें क्या कह के लिखूँ. जो मैं तुमको भली भाँति जानता हूँ और बहुत दिनों की(का) परिचय भी है तो भी एकाएक तुम्हैं जैसा जी चाहता है लिखने में सकुच लगती है पर मुझे विश्वास है कि तुम सब समझ लोगी, और भी इसका ब्योरा निपटाना तुम्हारा ही काम रहैगा. जब तक मुझे तुम आप लिख कर कोई राह न बताओगी मैं तुम्हैं सामान्य रीति पर ही लिखूँगा. तो बस––तुम्हारे पत्र के पढ़ते ही मैंने तुम्हारी बुद्धि की सराहना की मुझे आशा न थी कि तुम पहली ही बेर इस ढिठाई के साथ लिखोगी पर वह मार्ग ही ऐसा है कि कोई क्या करै. तुम्हारा पत्र तुम्हारे अंतरंग और मनोगत का सच्चा प्रमाण है. इस विषय में मुझे और कुछ नहीं कहना क्यौंकि तुमसे परिचित सुजन से और ढिठाई का कहना मेरा ही अपराध गिना जायगा––ढिठाई––हां ढिठाई तुम न करोगी तो कौन