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श्यामास्वप्न

"—षु आपने जो लिखा सो सब ठीक है, पर प्रीति सदा निबाह ले जाना . हमने क्या अपराध किया जो तुमने हमको फिर दर्शन नहीं दिया. अब हमारे अपराध को क्षमा कीजिए आपका पठन-पाठन देख हृदय प्रफुल्लित हो जाता है . विद्या सीखना ही अधर्म है घर का काम न करै तो हँसी जाय . मैं तुमको कहीं न कहीं से देख ही लेती हूँ . यद्यपि... घात लगाए रहते हैं पर क्या करें, बिन देखे चैन नहीं पड़ता कहीं न कहीं से आपके दर्शन हो ही जाते हैं तुमने मेरा जो जो उपकार किया उसको जनम भर नहीं भूलने की. मेरा सब अपराध क्षमा करना” द्वापर कृष्ण युग की लिखी .

तुम्हारी
 
श्यामा"
 

इस पत्र को लिखकर लौट के बाँचा भी नहीं और यह भी नहीं देखा कि क्या भूल चूक हुई . मैं लिखते समय अपने को भूल गई थी- इसी से दुबारा भी नहीं बाँचा . झटपट सत्यवती को देकर कहा इसे ले वह भी शीबू ही लेकर श्यामसुंदर के हाथ में दे आई . श्याम- सुंदर ने कहा "इसका उत्तर पीछे भेजूंगा अभी तू जा"-सत्यवती लौट आई . श्यामसुंदर वांचकर आनंदमग्न हो गए . कई बार मेरे .अक्षरों की बनावट देखी . मैं कुछ बुरा नहीं लिखती थी पर श्यामसुंदर को नहीं पाती . दस बेर मेरी पाती उन्होंने फेर फेर बांची, और न जाने क्या क्या कविता की . उन्हें कविता की बिमारी थी . नहीं समझती--इसी से उनने मुझै सदा सीधे साधे पत्र लिखे . मुझे जब वे पत्र लिखते या तो रात को जब किसी की बात भी न सुनाती- और या तो बड़े प्रातःकाल. संध्यावंदन के उपरांत . पर उनकी लगन मुझ पर लग गई . यद्यपि कई मास तक उनने अपनी मनोवांछा ढाँक रक्खी थी तो भी मैं उनकी बोल चाल, डीठि, रहन बतरान और हंसन मैं उसे बहुत