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श्यामास्वप्न

से लिखा है तो बस रहने दो, मैं इस विषय में कुछ नहीं कहता यह आपकी सहज दया है, मन में आवै तो दो डडीच लिख भेजना, हाथ जोड़ता हूँ".

द्वापर कृष्णयुग
तुम्हारा शुभचिंतक
 
फाल्गुण
श्यामसुंदर"
 

यह पत्र मेरे कलेजे में बान सा लगा . मैंने इसको कई बार बांचा और मन ही में समझ गई . क्षणभर तनकी सुधि भूल गई . मन में बहुत सी बातें सोचने लगी . श्यामसुंदर उत्तर की आशा लगाए रहे जब मैं नहाने जाती मेरे पीछे आप भी नहाने जाते . कहते कुछ नहीं पर ध्यान उनका मेरे पर लगा रहता . इधर उधर देखते पर छिन छिन पै टेढ़ी दृष्टि करके मुझे भी देख लेते . जब मैं घर लौट जाती वे भी दूसरी खोर से अपने कुटीर को चले जाते पर ऐसा जान पड़ता कि मेरे ध्यान से क्षण-भर विलग नहीं रहते . मैंने कुछ उत्तर न दिया क्योंकि मुझे ज्ञान न था कि क्या लिखू . अंत को वे बीमार हुए . ज्वर आने लगा . एक तो बड़े आदमी के लड़के दूसरे सर्वदा सुख ही में रहे इस्से बड़े सुकुमार थे मुरझा गए . ज्वर दइमारे ने उन्हें थोड़े ही दिनों में निर्बल कर दिया, पर ओषधी अच्छी की . एक या डेढ़ सप्ताह में चंगे हो गए . चलने फिरने लगे, खाने पीने लगे . अब कुछ कुछ बल भी आने लगा पर भली भाँति अच्छे नहीं हुए . इस ग्राम के जलवायु ने उन्हें बहुत अशक्त कर दिया था . वैद्य ने उन्हें मति दी कि एक मास तक दूर देश की यात्रा करो नहीं तो और शरीर बिगड़ेगा . वैद्य को उन्होंने हामी भर दी पर मुख पर पीरी आ गई उन्हें मेरा वियोग सहना छन भर मेरे बिना रह नहीं सकते थे, पर शरीर की भी रक्षा मुख्य थी . थोड़ी देर में वैद्य के जाने पर उन्होंने सत्यवती को बुला के कहा कि "श्यामा से मैं कुछ कहूँगा तू जा उसे बुला ला" यह सुन दुस्तर था .