पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६३
श्यामास्वप्न

सत्यवती ने आकर मुझसे कहा. मैंने सोचा आज क्यौं बुलाते हैं. कुशल तो है तौ भी जाने के लिए तत्पर हुई. सफेद कोसे की सारी पहन, और एक छोटी सी माला गले में डाल कर चली. अपनी देहरी पर जाकर ठठक गई, फिर मन में सोच आया कि कहाँ मुझै बुलाया है और मैं कहाँ जाती हूँ, यह बात तो मैंने सत्यवती से भी नहीं पूछी थी. कहां बे ठीक ठिकाने की उठ चली. हाय रे भगवान् बड़े कठिन की बात है—मैंने बड़ी भूल की थी. मैं बाहर निकल कर कहाँ जा ठाढ़ी होती. ऐसा सोच विचार के फिर लौट आई. सत्यवती से कहा "मुझै कहाँ बुलाते हैं—जा पूछ आ" सत्यवती गई और एक क्षण में आकर कहा कि "उन्होंने तुझै कविताकुटीर में बुलाया है. अभी दुपहरी का समय है—कोई नहीं है चली जा"—मैं बाहर निकली और श्यामसुंदर के कुटीर के तीर ज्योंहीं पहुँची श्यामसुंदर उठकर बाहर आए और मेरा हाथ बड़े चाव से पकड़कर भीतर ले गए. ले जाकर मुझै बड़ी कोमल कुरसी में बैठाया और वे भी मेरे सन्मुख एक हाथ के (की) दूरी पर बैठ गए. यह कुटीर बड़ा मनोहर था. इस कुटीर में चारों ओर के द्वारों पर माधवी लता छाई थी, चमेली की बेली अपने लंबे लंबे हाथ पसारे माधवी से मिल कर मुसकिराती थी. गुलाब भी अपनी अलौकिक आब फूलों के मिस दिखाता था. विलायती किते की कुरसियाँ मखमल और रेशम से मढ़ी करीने से धरी थी. गोल चौपहल और अनेक आकार के मेज जिन पर रंग बिरंग की बनातैं पड़ी थी बीच में रक्खे थे. मनोहर और विचित्र विचित्र पूठों की पुस्तकें अच्छी रीति पर धरी थीं. सामने और आजू बाजू अलमारियाँ जिनमें सैकड़ौं पुस्तकैं अनेक विद्याओं को सिखानेवालीं भरीं थीं—शोभित थी. बीच में एक गोल छोटा सा मेज धरा था, उस पर श्यामसुंदर का चित्र हाथी-दाँत की चौखट में जड़ा धरा था इसको देख सभी दंग हो जाते. उसमें श्यामसुंदर हीरे का बड़ा सिरपेच बाँधे जिसमें बड़े बड़े बहुमूल्य के पन्ने लटकते थे हीरे ही की सुंदर कलगी