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श्यामास्वप्न

का जाना अच्छा नहीं होता कदाचित् कोई कुछ कहने लगे तो भी ठीक नहीं . इसको सोचा तो सही पर न रहा गया . कलम लेकर एक छोटा सा पत्र जहाँ तक लिख सकी लिख भेजा . वह अंत में कागद यह था.

"मनमोहन प्यारे .

आपने जो जो कहा था सो सब याद है . आपके बदन और मुख हमारे दोनों आँख के सामने झूलते रहते हैं. पर आपके कुटीर के द्वार की जाली नैनों को तुम्हारे तक पहुँचने को रोक देती है क्या मोह कमती हो गया ? बस अब नहीं लिखा जाता-जो मन में है मन ही में रहने दो . "ऐ बाग के माली अपने बाग के फलों की भली भाँति रक्षा करना-तकना--कोई पक्षी चोंच न लगाने पावै"-चलते समय अटारी पर से भेंट होगी, बस ."

द्वापर फाल्गुण:

इस पत्र को भेज दिया . उत्तर नहीं मिला और उत्तर की अपेक्षा भी तो नहीं थी . दूसरे दिन श्यामसुंदर के जाने की तयारी हुई . डेरा डंडा सब पहले ही चला गया था . अकेले वे ही रह गए थे . भोर होते ही उठे स्नान-ध्यान कर कुछ कलेवा किया और सात बजे तक जाने के लिए उपस्थित हो गए . रथ बड़ी देर से कसा खड़ा था . उनके नर्मसखा मकरंद भी संग हो गए . इनकी सकुच मुझे बहुत लगती थी और सच पूछो तो अनेक कारणों से लाज और भय भी रहा आता था . ये सब बातें श्यामसुंदर को पहिले से ज्ञात थीं-इसी लिए उन्होंने मकरंद को पहले ही रथ के निकट भेज दिया था-और वे चलते समय अकेले रह गए . .मैं भी अपनी प्रतिज्ञा पालने के लिए अटारी पर चढ़ गई, सत्यवती और सुशीला भी मेरे संग में थीं . मैंने