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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१०७

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श्यामास्वप्न

मेरी इष्ट देवी है और मैं तेरा भक्त हूँ . मैंने तुम्हारी मूर्ति की पूजा उसी दिन से आरंभ की थी जिस दिन पहले तुम्हें उस दिन अटारी पर बार बगराते देखा था इस वाक्य को भली भाँति बल दे के कहा, वह कहन मेरे हृदय में गड़ गई-इतनी गहिरी कि अद्यापि मेरे हृदय के उत्तर दायक तार झनझनाते हैं . मैंने भी उन्हें कहा "प्यारे जो हाल तुम्हारा था सोई मेरा भी था पर गुप्त ही रखना पड़ा, आज अच्छा हुआ जो दोनों के जी की सफाई हो गई ." इतना सुनाय मैंने उनके कर- कमल पकर अपने हृदय से लगाए-उनने मेरे हाथ को ले अपने ओठों से लगाया. मैंने झींका भी नहीं, मेरा हृदय तनिक भी उस अपूर्व आनंद को स्मरण कर न मुड़ा और मुझे उस समय ऐसा सुख हुआ जो मैंने पहले कभी अनुभव नहीं किया था . ज्यौंही मैं उस समय की तरंगों के बल से आगे झुकी उनका अनुपम मुख निरखने लगी- और उनके काले नैनों की गंभीरता में उनके उस प्रेम को बाँचने लगी जो अभी उनके अधर पल्लव से निसरा था-त्यौंही उन्होंने मुझे गलबाही देकर हृदय से लगा लिया-हम लोगों के अधर मिले और बड़े विलंब में चुम्बन का अनुकरण शब्द निकला . उन्होंने बिदा दी और मुझे इस प्रतिज्ञा पर छोड़ा कि "चलते समय एक बेर और दिखाई देना ."


आह ! उस क्षण का सुख कैसे कहूँ ये वे भाव थे जो मेरे गंभीर हृदय के कुंड से अमृत की नाई झरने लगे थे . यह मेरा शुद्ध और पावन प्रेम था जो श्यामसुंदर के लिए अंकुरित हुआ था . मैं उसे टटोल भी चुकी थी . जान भी गई कि यह ऐसा ही था . 'प्रेम'-प्रेम जिससे इन्द्रियों से कुछ संबंध नहीं-प्रेम-जिस पर इंद्रियों का धक्का नहीं लगा था, प्रेम-जो मेरे ( मेरी ) आत्मा के दृष्टिगोचर हो चुका था:

"मैं घर गई, बैठी उठी, पर श्यामसुंदर की झलक आँख की ओट न हुई : फिर भी इच्छा हुई कि जाकर भेंट करैं पर सोचा कि बार बार