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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/११२

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श्यामारवप्न

कारण सोने लगी . देवी ने मुख पोछा दोनों हाथ पसार ईश्वर से मंगल कुशल के साथ पूरी कथा कहने के (की) शक्ति का आवाहन किया, सरस्वती से हाथ जोड़े भगवती के पदकमल स्पर्श करके यों कहने लगी--

"सुनो जी मेरी बड़ी बुरी दुर्दशा हुई . मुझै श्यामसुंदर का वियोग सताने लगा . उनके उठने बैठने के ठौर मुझे काटे खाते थे और मैंने बार बार यह छंद पढ़ा .

खोर लौं खेलन जाती न तो कहुँ

प्रालिन के मति में परती क्यौं।

गुपालहिं देखती जौ न तो

वा विरहानल मैं बरती क्यौं ।

बावरी को मंजुल वाल

सुभाल सी है उर मैं अरती क्यौं ।

कोमल कैलिया कूकि के

करेजन की किरचें करती क्यौं ।

बस मेरी ठीक यही दशा हो गई थी, परवश में पड़ी थी . तो श्यामसुंदर के पास थे शरीर मात्र यहीं रह गया था. उधर श्यामसुंदर भी बेचैन थे . मकरंद से अपना दुःख का रोना रोया करते : संसार उन्हें सूना हो गया अन्न जल में स्वाद नहीं लगता . साँप की साँस सी समीर लगती, शरीर में ऐसी पीर उठती मानौ भुजंग की मैर हो, नेत्र नरगिस के (की) भाँति हो गए, पीरी पीरी पत्तियों की भाँति तन सूख गया था . वदन सूखि के किंगड़ी और रगैं तार हो गईं थीं, रोम रोम से सुर उठकर मेरा ही नाम बजता था . यद्यपि अभी उन्हें गए दो चार दिन से अधिक नहीं भए थे तथापि विरह ने व्याकुल कर दिया था .दिन भर मेरा गुन गाते और रात को मेरा स्वम देखते . वन वन धूर छानते फिरे वन पर्वत की कंदराओं में मेरे ही वियोग की तान गान कर कर झाँई से हुँकारी झराते थे .

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