पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/११३

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श्यामास्वप्न.

देखी कहूँ मृगनैनी अहो वन पर्वत निर्भर सो मुहि भाखो
वात सों कंपित पादप हाय कहो किहि आतप को दुख चाखो ।
हौं जगमोहन श्यामा विहाय फिरौं विलगाय इतै मन माखो
दै जु बताय कहाँ गई मोहिनी मूरत भारत को जिय राखो ।।
देखी कहूँ सरिता गिरि खोह कहूँ मनरंजनि मोहिनी मूरति
सो गई पंकज लेन कै खेलत कै बहलावत है मनहूँ अति ।
कै कहुँ प्रेम प्रकासिबे काज लुकाय रही वन पल्लव सूरति
हौं जगमोहन देहु बताय वियोग शरीर अजौ मुहिं भूरति ।।

इसी प्रकार के अनेक गीत अभीत हो वन में गाते फिरते . इस चौपाई को बार बार कहते, मकरंद ही केवल इन्हैं साहस देता रहता

सो तन राखि करब मैं काहा । जिन न प्रेम पन मोर निबाहा ।।
हा रघुनंदन प्रान पिरीते । तुम बिनु जियत बहुत दिन बीते ॥"

और कभी कभी यह भी--

मुसौवर खीचले तस्वीर गर तुझमें रसाई हो ।
उधर शमशीर खींची हो इधर गरदन झुकाई हो ।

ये रस की भीनी तुकै गा गा कर आँसू भर लेता . अंत को उसने मुझे एक पत्र भेजा--जिसको मैं तुमसे कहती हूँ .

"प्रानप्यारी
 

"रटत रटत रसना लटी तृषा सूखिगे अंग ।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग ॥"

इसे समझ लेना जब से मैं तुम्हारी दया दृष्टि से दूर हुआ दर दर घूमा पर ऐसा कोई न मिला जो तुम्हारे विरहताप की ताप मिटाता . वन के रम्य रम्य मनोहर स्थलों को देख तुम्हारे बिना करेजा टूक टूक हो जाता है . प्रतिकुंज में तुम्हें देखता हूँ-पर स्वप्न सा जान पड़ता है .