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श्यामास्वप्न

टेढ़ी दृष्टि कर चले गए. घर के सन्मुख घोड़ा खड़ा कर दिया आप उतरे और कई भले आदमियों से कुछ सूक्ष्म वार्तालाप कर भीतर चले गए. वह दिन तो किसी प्रकार से कट गया पर होनहार न जाने क्या थी. श्यामसुंदर कई दिन तक मुझसे न मिले—मैं एक दिन सोचने लगी—'हाय मुझसे क्या कोई अपराध हो गया है जो श्यामसुंदर सुधि तक नहीं लेते'—ऐसे सोच विचार करते करते कई घड़ी व्यतीत हो गई. मैं नहीं जानती थी कि श्यामसुंदर भी उधर विरह अगिन में पच रहे हैं और केवल मेरे प्रेम की परीक्षा लेने की कोई युक्ति विचारते हैं. थोड़ी देर के उपरांत उन्नै मेरा स्मरण किया, पूर्ववत् सत्यवती को बुलाके मुझै बुलवाया और मैं उसी कविताकुटीर में गई. श्यामसुंदर मुझै देख उठ खड़े हुए—मेरा हाथ धर लिया और बड़े प्रेम से अपने (अपनी कुरसी के निकट मुझै भी कुरसी दी, पर मेरी देह झुरसी सी देख खेद करने लगे और बार बार मेरा कुशल प्रश्न पूछा. नैन सजल हो गए—मैं भी सिसकने लगी. कुछ समय तक यही लीला रही. अंत को उनने कहा—"क्यौं अब मैं प्यारी कह सकता हूँ न—हाँ— तो प्यारी तुम्हारा अंत का पत्र मुझे दो दिन हुए मिला था'—इस पत्र को खीसे से निकाल पढ़ने लगे—

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