पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१२८

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श्यामास्वप्न

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इसको बाँच कर कहा—"क्यौं यह तुम्हारी ही लिखी है न?"

मैंने उत्तर दिया—"हाँ—है तो"—

श्यामसुंदर ने कहा—"फिर अब क्या मरजी है?"

मैंने कहा—"क्या मरजी—मरजी तो सब आपही की चाहिए, मैं तो तुम्हारी दासी के तुल्य हूँ"—

उन्होंने कहा—"मुझै इस बार यात्रा में बड़ा दुख हुआ—प्राणयात्रा केवल प्राण बचाने को होती थी नहीं तो सचमुच आज तक प्राण की यात्रा हो जाती, तब तुम्हारे मुखचंद्र का कौन दरसन लेता.

नाम पाहरू रात दिन ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद यंत्रित जांहि प्रान केहि बाट॥
श्यामा श्यामा सामरी श्यामा सुंदर श्याम।
श्यामा श्यामा रट लगी श्यामा प्यारो नाम॥

बस इतने ही से सब समझ जाना".

मैं कुछ विलंब तक सोचती रही कि क्या उत्तर दीजिए, पर श्यामसुंदर ने उठ कर मेरा चुंबन लिया और बोले "अब क्या विलंब करती हो–कुछ तो कहो—

हौं अधीन तुअ सामरी तुम बिनु जी अकुलात।
देह दसा तेरे सुमुख क्यौं न पसीजत जात—॥"

मुझै तो कविता बनाना ज्ञात न था—उत्तर में पुराने दोहे कहे—