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श्यामास्वप्न

और साहस कर बोली-'मान्यवर ! प्यारे ! यह क्या व्यापार है ? यह किस वेद का मार्ग है, यह किस न्याय की फक्किका है-किस वेदांत शास्त्र का मूल -वा मोक्ष का उपाय है-के तप का नियम -वा स्वर्ग जाने की नसेनी है-मैं तुम्हारी दशा भली भाँति समझती हूँ पर इसी से तुम जान लोगे जब मैं कहोंगी कि 'ईश्वर की ओर ध्यान लगावो'–कि मैं स्त्री जाति और बाला भी होकर निर्बुद्धि नहीं हूँ- मुझै भी तो किसी का डर भय है कि नहीं-अकेली तो नहीं हूँ-माता पिता सुनके क्या कहेंगे-तुम तो निर्भय हो--पर मैं तो परवश हूँ-- क्या ए सब तुम नहीं जानते-और भी धर्म अधर्म कुछ विचार है कि नहीं-कहाँ तुम और कहाँ मैं वर्गों में कुछ भेद है कि नहीं, भला इन सबों को तो सोचो--कहो क्या कहना है ?"

श्यामसुंदर आँसू भर कर बोले--"यदि शास्त्र तुमने बांचा हो तो --न्याय वेदांत और वेदों का भेद यदि तुम जानती हो तो कहो ? मेरी बात का प्रमाण करोगी वा नहीं ? मेरी दशा देखती हौ कि नहीं ? धर्म अधर्म की सूक्ष्मगति चीन्हती हो तो कहो ? सुनो-- तुम्हारे वजूमय हृदय को जो तनिक नहीं पिघलता मेरी ओर देखो और अपनी ओर देखो . मेरी करुणा और अपनी वीरता देखो . वेद शास्त्र की बात का यह उत्तर है--जो मेरे प्रवीन मित्र ने कहा है--

लोक लाज की गाठरी पहिले देहु डुबायः ।
प्रेम सरोवर पंथ में पाछे राखो पाय ॥
प्रेम सरोवर की यहै तीरथ गैल प्रमान ।
लोकलाज की गैल को देहु तिलंजुलि दान "

सो यह तो तुम कर ही चुकी हो . न मानो तो अपने पत्रों ही को देख लो. भला अपने लिखे का प्रमाण मानोगी कि नहीं ? (संदूक से निकाल कर ) भला देखो. तो ये किसके हस्ताक्षर हैं ? तो बस तुम्हारे मौन ने मेरे बचन को पुष्ट कर दिया--अब रहा धर्म अधर्म, उसका भी --धन्य है