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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३६

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श्यामास्वप्न

इस पत्र का मेरे पर बड़ा असर हुआ . मेरे हृदय में सब बातें व्याप गई. मैं हाथ पर हाथ धरे रह गई . मन शोच-सरोवर में पड़ गया क्या लिखू और क्या न लिखू , यही जी में समानी. समय और अवसर के (की) ओर विचार किया. मन कोई (किसी) भाँति नहीं मानता था और मैं ये दोहे एक बेर श्यामसुंदर के पास कह चुकी थी-

मन बहलावत दिन गए महा कठिन भइ रैन ।
कहा करौ कैसी करौ बिनु देखे नहिं चैन ॥
छिन बैठे छिन उठि चलै छिन छिन ठाढ़ी होय ।
धायल सी घूमत फिरे मरम न जानत कोय ।।-

और सत्य भी था . अब क्या उत्तर देव यही सोचती थी . यह तो जान गई कि जो उत्तर मैंने अपने जी में विचारा है वह कदापि उन्हें भला न लगेगा पर जो काज रह के होता है वह अच्छा होता है . मैंने यह पत्र अंत में लिखा .

"प्राणधन ! जीवन आधार ! मेरी राम राम अंतःकरण से लेव . तुम शीघ्रता बहुत करते हो . अवसर को नहीं परखते . यहाँ के भी वृत्तांत पर कुछ ध्यान धरो . मैं सब भाँति तुम्हारी ही हौं, लेव--अब प्रसन्न हुए ? मैं तुमसे अवश्य मिलूंगी . बस बात दे चुकी हार दिया . "प्राण जायगा पर प्रन नहीं जायगा," दो बेर थोड़े ही जन्म होगा कि बात बदलें . पर मेरी विनय यही है जो आप मानिए .

दोहा

कारज धीरे होत है काहे होत अधोर
समय पाय तरुवर फरै केतिक सींचो नीर ।
क्यौं कीजे ऐसो जतन जाते काज न होय
परवत पर खोदै कुओं कैसे निकसै तोय ।
सुधरी विगरै वेगही विगरी फिर सुधरै न
दूध फटै कांजी परै सो फिर दूध बनै न ।