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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१३५

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श्यामास्वप्न


गतागत कई दिन बीते, श्यामसुंदर मेरे उत्तर का मग जोह रहे थे.

मैं ऐसी निठुर हो गई कि कुछ नहीं लिखा • कारन इसका कुछ कपट या दगा नहीं था--केवल सकुच और लाज थी और ए दोनों स्वाभाविक थीं--अंत को श्यामसुंदर ने मुझे एक पत्र लिखा-

प्रानप्यारी,
 

दोहा

"वरखि परुख पाहन पयद पंख करो टुक टूक ।
तुलसी परी न चाहिए चतुर चातकहिं चूक ।।

मग जोहते एक कल्प बीत गया. मन का मनोरथ सब मन ही में रीत गया . यह अनरीत कहाँ सीखी परतीत देकर यह विश्वासघात ! बलिहारी है ! धन्य है . लाज नहीं लगती ? "चिरी को मरन बालकन को खेल है"--क्यौं--ऐस ही है न ? हम इस पाती में तुम्हारी उस दिन की बात कुछ भी नहीं लिखते . वह तो सब तुम्हारे स्मृति के फलक पर लिखी ही होगी . तो अब विलंब क्यों करती हौ . मैं अपनी दशा क्या लिखू--जो न जानती हो तो लिखू . प्रेम का हमारा तुम्हारा तत्व एक तो है, मन मेरा तुम्हारे पास है . सो प्यारी तुम मेरे मन को जानती हो, उसी से पूछोगी तो सब खुल जायगा . बस पर इस दोहे को समझ के उत्तर शीघ्र देना--नहीं तो इधर कूच है, दुखित धरनि लखि बरसि जल

घनउ पसीजे पाय-

द्रवत न तुम घनश्याम क्यौं,

नाम दयानिधि पाय--

तुम्हारा
 
तृषित,"