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श्यामास्वप्न

कितना चाहा कि तेरे इश्क में मर जाएँ हम
पर निकलता नहीं दम
सच तो यों है कि मैं इश्क सज़ावार नहीं
तेरी तकसीर है क्या
ऐ सनम तू ही मेरी शक्ल से रहता है रुका (रुसा)
है अजल भी तो खफा
बेवफ़ा तुझसा जहाँ में कोई दिलदार नहीं
कीजिए किससे गिला
फरले गुल की न क़फस में मुझे दे खुशखबरी
यां है बे बालो परी
लायके सैरे चमन अब ए दिलफ़गार नहीं
क्यौं रुलाती है सबा
सब वज़ादार तेरे आके कदम चूमते हैं
मैं तो आशिक हूं तेरा
अपनी नज़रों में कोई तुझसा तरहदार नहीं
है कसम खाने की जा
शमारुख का तेरे ऐ गुल ! कोई परवाना नहीं
और अगर हूँ तो महीं
दामे काकुल का तेरे कोई गिरफ़्तार नहीं
हम पर ए पड़ा
कटल ही गर मेरा मंजूर है ऐ उरविदा साज़
खैर हाज़िर है गुलू
कोई अरमां मुझे जुज़ हसरते दीदार नहीं
रुख से परदा तो
देख पछतायगा मूनिस न तू दे मुफ्त में जां
तर्क कर इश्के बुताँ