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श्यामास्वप्न

सब लोग अपने अपने काम में लगे पर वे अभी तक सेज ही पर पड़े हैं . रामचेरा ने बरबस उठाया, मुख हाथ धुलाए, कुछ दुग्ध पान करके फिर भी लेट रहे राजकाज सब छूटा . ध्यान मेरा लगा के हृदय का कपाट बंद कर लिया . मुझे भी चिंता हुई . आज जो कुछ बात नहीं होती तो वे अवश्य आत्मघात कर लेंगे . इतना सोच भोजनोत्तर सुलोचना के घर गई और एक पत्र श्यामसुंदर को लिख कर उसी के द्वारा भिजवा दिया • यह पत्र कुछ विचित्र नहीं था, केवल सहेट का सूचक था . प्रकाश करने का प्रयोजन कुछ नहीं, समय तो साँझ का ठहरा था-स्थान "धीर समीर"-वंशीवट के उस पार. ग्रीष्म के दिनों की साँझ कैसी मनोहर होती है, यही समागम का उत्तम समय था चित्रोत्पला मंद मंद बहती थी . तरल तरंगों में सफरी उछलती थी, हंसी की श्रेणी-चक्र- वाक के जोड़े, कुररियों की कतार पार पार पर बैठी शोभित होती थी

आर्या

सुभग सलिल अवगाहन पाटल संगम सुरभि वन की पौन ।
सुखद छाहरे निदिया दिवस अंत रमनीय न भौन ॥
तनिक तनिक करि चुंबन केसर सुकुमार डारन पै भौंर ।
सदय दलित मधु मंजरि सिरिसा सुमन पर हैं झौर ।।

ऐसे समय में श्यामसुंदर का और मेरा समागम विधि ने रचा था. दिनकर-कर ने पश्चिम दिशा के मुख में गुलाल लगा दिया . संध्या समय के पश्चिम दिशावलंबी मेघ नाना प्रकार के वर्ण दिखलाने लगे . सूर्य के रथ का पिछला भाग ही केवल दृष्टि पड़ता था . पूर्वाशा को छोड़ सूर्य नायक ने पश्चिमदिगंगना को सनाथ किया; वह भी इस नायक को पाकर रजनीपट मंडप में जा छिपी मानो मुझै समागम की पाटी सिखा दी; मैं अपने जी में डरी कि प्रथम समागम का आगम कैसे होता है- हँसी-मुसकिरानी-संध्या के समान जपा के सदृश लाल वसन धारन