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श्यामास्वप्न

किए, सुलोचना आगे और वृंदा पीछे बीच में दोनों के मैं हो गई, जैसे दिन और रात्रि के बीच में संध्या हो. श्यामसुंदर ने दूर ही से देखा- उठे बैठे इधर उधर देखा, फिर मेरी ओर देख कर खड़े हो गए, मैं अब निकट पहुँचती जाती थी. मेरा भी सकुच के मारे मुँह नीचा होता जाता था-पर श्यामसुंदर को बिन देखे लोचन कल नहीं लेते थे . सखियों के बीच में बार बार किसी न किसी मिस से देख लेती थी . अब बहुत ही निकट गई . उनकी ( उन्होंने ) मेरे तन को चिरकाल की प्यास बुझाई और मुझे झपट कर अंक से लगा लिया --वाह रे दिन-धन्य है वह घरी जिसमें इस आनंद की लूट हुई. मैं उनके और वे मेरे बदन को देख देख भी नहीं अघाते थे. मैं चंपकमाल सी उनके हृदय से लपट गई प्रथम समागम में भी इतनी. ढिठाई स्वभाव वश--या केवल चतुराई के कारन होती है, पर मैं इस नवीन संगम के दिन यद्यपि नवोढ़ा रही तो भी मुझे श्यामसुंदर पहले से सब कुछ सिखा दिया था . मैंने कहा--"प्यारे अपने जी की पीर मिटा लो" पर उनने कुछ उत्तर न दिया वे अवाक्य हो गए उन्हें कोई उत्तर न सूझा, केवल ललचोही और प्यासी दृष्टि से मेरी दृष्टि पर टकटकी लगाए रहे . जुगल त्रिलोचनों पर जुगल कमल सनाल समर्पण किए अथवा तन सरोवर में पैठ चक्रवाक के दो बच्चों को हाथ से पुचकारते . चुंबन किया आलिंगन किया--मेरा तो बस अब वही हाल हो गया था जैसा पजनेस ने कहा है .

"बैठी विधुवदनी कृशोदरी दरीची बीच
खीच पी निसंक परजंक पर लै गयो।
पजन सुजान कवि लपटी लला के गरे
झपटी सुनीवी कर जंघन सबे गयो ।
गोरो गोरो भोरो मुख सोहै रति भीत पीत
रति क्रम रक्त है (कै) अंत सो रजै गयो ।