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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५१

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श्यामास्वप्न

जाता. पर यदि ऐसा साहस न करता तो श्यामारहस्य की थाह भी न मिलती . रुद्रयामल और कालिकातंत्र तो अभी हरितालिका के दिन के बने थे मैं बड़े घनचक्कर में पड़ गया. पर इसकी क्या चिन्ता फक्कर तो होना ही था, जप न हो सकी क्योंकि उस गोमुखी में अनेक छिद्र हो गए थे. वाहरे विष्णुशर्मा ! क्यों न हो ! तू ही तो एक मेरा नवखंड पृथ्वी में मित्र था. लक्ष्मी जी की पूजा करते करते स्वयं नारायण को भी राजी कर लिया अब क्या बचा था जिस्के पीछे तू दौड़ता . मैं तो आम की फुनगी में लटक गया भौरों के साथ उड़ने लगा-काले काले कपोत पोत में बैठ कर उड़ते थे. मंदिर के कंगूरे में बैठ कर अंगूर खाने लगा. हाथ जोड़ कर कपोतों को बुलाया-कपोत कब विश्वास करते थे ? वे दूर ही से देख कर उड़ जाते. मैंने बहुतेरा अपना सा बल किया. बड़े बड़े रस्से मद्रास और माड़वार से डाक पर मंगवा कर बाँधे पर फंदा न लगा. जिस चिड़िया को फाँस लगाई वही चिड़िया निबुक गई . मानौ उन्होंने महाबीर से निबुकना सीखा हो.

"निबुक चढ्यौ कपि कनक अटारी
भई सभीत निशाचर नारी"-

इस ब्रह्मफांस से निबुकने के लिए सिवाय बजरंगबली के और कौन समर्थ था-हाँ-सो भी श्यामा और श्यामसुन्दर की (के) आशीर्वाद से . अंत में एक कपोत को पोंछ पुचकार के विश्वास दिया. संदेशा भेजने के लिए इनसे बढ़के और कोई विहंगगणों में नहीं है . यह चतुरता की कला इनकी रूम रूस के युद्ध में भली भाँति लखी गई थी . एक कपोत से कहा 'तू जाकर किसी बड़े भारी ऋषि को बुला ला कि जरा मेरी गोमुखी को टाँक तो दे .' कपोत उड़ा उड़ते उड़ते कैलास पहुँचा वहाँ महादेव से कहा “कोई ऐसा मुनि बताइये जो गोमुखी सी “दे . वे जप करने को ज्यौंही बैठे उनकी माला नीचे लटक पड़ी अब वे जप विना समाप्त किए भोजन नहीं करते ."