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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५०

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श्यामास्वप्न

भरकर मुझे दे गई थी. मैंने उसी का स्मरण किया झोली तो ओली ही में धरी थी . वीर बजरंग और श्यामा देवी का नाम-स्मरण कर ज्यों ही हाथ डाला मंत्र की एक पुड़िया हाथ लगी, पुड़िया को खोलते ही उस्में से मंत्र की धुनि होने लगी . इस समय तो सतमुहा घोड़ा बुलाना था, यह मंत्र याद कर लिया .

"ॐ उच्चैःश्रवाय नमः एहि एहि फाटकं खोलय झोलय स्वाहा" इसका जप गोमुखी में हाथ डार के करने लगा . अष्टोत्तर शत भी न पूरने पाया कि एक सहस्र किरनवाले भगवान मरीचिमाली अपने घोड़े को कोड़े फटकारते पहुँच ही गये, हाथ जोड़ कर बोले "क्या आज्ञा है"- मैंने कहा “इस स्टेशन के निगड़ कपाट तो खोलो." उनने सुनते ही रथ हांका-घोड़ा तो बड़ा बांका था -खोलते खोलते हार गया, टापैं मारी-लत्ती फेंकी-बचा को ऐसी चोट लगी कि फिर लौट कर हरदी अजवाइन से सेंकी-छठी का दूध याद किया होगा . घोड़ा का बल निकल गया बचा से कुछ भी न हो सका. मैंने कहा "यदि तुम में यही बल था तो आए क्यौं-वहीं बैठ रहते व्यर्थ हमैं कष्ट दिया अब अपना सा मुख ले जाइए..

इतना सुनते ही सूर्य भगवान भागे. क्या करें बिचारे मुह तो विलायती अनार सा सूख गया था, ऐसा रथ भगाया कि फिर पश्चिम समुद्र में जा डूबे-लाज ऐसी होती है है-पराभव की लाज के मारे मुह सदा नीचे ही रहता है. अब रेल के खुलने का खेल निकट था, इसी से जी में और चटपटी समानी दूसरा मंत्र याद पड़ा 'गंगजराजायनमः" -इसे भी पूर्व रीति पर जपा पर ज्यौंही गोमुखी में इसके जपने की जुगत की गौमुखी सौमुखी हो गई सब पाँजर झाँझर हो गए, माला नीचे लटक पड़ी. मुझे यह ज्ञान न रहा कि यह गोमुखी साक्षात् ब्रह्मा के (की) झोली से निकली थी. मुझे क्या पड़ी थी जो उसमें हाथ डाल कोई मंत्र जंत्र जपते, मेरा तो अपवित्र हाथ था डालने के साथ ही जल भुन "