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श्यामास्वप्न

था न मानो तो वाल्मीकि रामायण पढ़ो-मैं भी पीछे पीछे गया . ब्रह्मा फाल्गुण ऋषि के चेले शाक्य मुनि की कंदरा में जा घुसे-उनके घुसते ही मैंने द्वार पर एक महा शिला लगा फिर उसी स्टेशन पर आ गया . विष्णु से सब हाल कह दिया . विष्णु भी उन्हीं दैत्यों को मारने हेतु गजराज पर सवार हो लक्ष्मी को छोड़ चले गए अब बिचारी लक्ष्मी शेषनाग के पाले पड़ी-यदि मैं न होता तो वह उसे सांगोपांग लील जाता . जैसे दमयंती को अजगर से व्याधे ने बचाया--पर अंत को ब्याधा अनाचार करने लगा . दमयंती ने शाप देकर भस्म कर दिया, पर मैं भस्म तो नहीं हुआ केवल कोयला होकर पड़ा रहा . मैंने प्रार्थना की लक्ष्मी प्रसन्न हुई और शेष का विष खींच मुझै सदेह कर फिर सजीव किया . यही तो आश्चर्य था कोई अमृत पीने से जीता है मैं विषपान कर जिया . धन्य है री मायादेवी धन्य है ! इतने ही में गंगा की ऐसी लहर आई कि लक्ष्मी उसी तरंग में बह गई-मैंने शोच किया रेल आई टिकट ली चार रुपये नौ आने साढ़े दस पाई देना पड़ा . रेल पानी पर चलने लगी . गंगा बहते बहते ब्रह्मपुत्र से जा मिली और अंत को सहस्र धारा हो सागर में जा गिरी-वहाँ सौतें तो बहुत मिली पर गंगा की तृप्ति कब होती है, एक सागर से दूसरे दूसरे से तीसरे इसी तरह सातो सागर घूमी-अंत को फिर क्षीरसागर में पहुँच कर विलास करने लगी . मैं भी गंगासागर के मुहाने तक गया. मुहाने में घुसी- वाहरी रेल.

“अनि वायु जल पृथ्वी नभ इन तत्वों ही का मेला है
इच्छा कर्म संजोगी इजिन गारड आप अकेला है,
जीव लाद सब खींचत डोलत तन इस्टेशन झेला है
जयति अपूरब कारीगर जिन जगत रेल को रेला है."

दूसरा स्टेशन दिखाने लगा . विचित्र लीला, अब जल से थल हो गया . उस स्टेशन के स्तंभ दिखाने लगे, स्टेशन तो हैमिल्टन साहब