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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५६

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श्यामास्वप्न

सोश्रो सुखनिदिया प्यारे ललन ।
भई आधी रात वन सनसनात
पशु पंछी कोउ श्रावत न जात
जग प्रकृति भई मनु थिर लखात
पातहु नहिं पावत तरुन हलन ।
झलमलत दीप सिर धुनत आय ,
मनु प्रिय पतंग हित करत हाय
सतरात अंग आलस जनाय
सनसन लगी सीरी पवन चलन ।
सोए जग के सब नींद घोर ,
जागत कामी चिंतित चकोर,
विरहिन विरही पाहरू चोर ,
इन कहं छिन रैनहु हाय कल न ।

वर्षा के बादरों ने अपना आगम जनाया; विरही लोग कादर हो हो चादर से अपना मुँह छिपा छिपा लगे रोने; संजोगी अपनी अपनी प्यारियों के साथ सादर हंसने बोलने लगे, मानौ अपना रावचाव दिखा के वियोगियों को लजाते और उनके दुस्सह दुःख पर हँसते थे . जो हो ये दिन भी न रहेंगे . यह तो रथ के चक्र सी मनुष्य के भाग की गति है-कभी सुख कभी दुःख, कभी गाड़ी नाव पर और नाव कभी गाड़ी पर चलती है. हाँ--आषाढ़ के गाढ़े गाढ़े मेघ गर्जने लगे . वियोगियों के जी लरजने लगे, आकाश में बक की पाँति उड़ती ऐसी जान पड़ती थी मानौ काली ने कपाल की माला पहिनी हो . बिजुली चमकने लगी--बादर बार बार घहराने लगे . श्यामा ने कहा--"भद् ! तुम इतनी देर तक कहाँ गए थे . देखो पावस आ गई . विरहियों के प्रान अब कैसे बचेंगे ? सुनो--