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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५७

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श्यामास्वप्न

लागैगो पावस अमावस सी अंध्यारी जामे
कोकिल कुहुकि कूक अतन तपावैगो।
पावैगो अथोर दुःख मैंन के मरोरन सो
सोरन सो मोरन के जिय हू जलावैगो
लावैगो कपूरहु की धूर तन पूर घिसि
भार नहि कोऊ हाय चित्त को घटावैगो
ठावैगो वियोग जगमोहन कुसोग प्राली
विरह समीर वीर अंग जब लागैगो ।

और भी-
 

को रन पावस जीति सकै लहकारै जबै इत मोरन सोरन ।
सोरन सों पपिहा अधरात उठ जिय पीर अघोर करोरन ।
रोरन मेघ चमकत बिज्जु गसे अब नैन सनेह के डोरन
डोरन प्रेम की श्राय गहो जगमोहन श्याम करो दृग कोरन ॥”

-"देवि ! मुझै ज्ञात नहीं मैं कहाँ था और कौन कौन आपत्ति झेल रहा था, तुम तो अंतरजामिन हो सब जान ही गई होगी . तुम्हारा नाम स्मरण करते सब मोहतिमिर नाश हो गया फिर तुम्हारा दर्शन पाया जैसे फणी अपना मणी पा जाय . तो ठीक है पावस तो आ गई अब चलो इस गुफा में बैठे, चलते नहीं तो पानी के मारे तुम्हारी कथा भी न सुन सकेंगे."

यह सुन श्यामा अपनी बहिन और वृंदा के साथ उठी और इसी पर्वत के (की)कंदरा में बैठी . यह कंदरा बड़ी विचित्र थी मानौ विश्वकर्मा ने स्वयं श्मामा के बैठने को बनाया था . नाना प्रकार के पक्षी गान करते थे . मत्त हंस सारस पपीहा कोइल इत्यादि पक्षी नीचे बहती हुई चित्रोत्पला में नहाते और कलोल करते . प्रकृति का उद्यान यहीं था. बस--