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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१५९

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श्यामास्वप्न

विधुर वधू पथिकन को नीरद नीर नैन सो पेखें
असुभ दरस वारिद गुनि जीवन अंत आपुनो लेखें .
मानिनि मान नमन घन मारुत उपवन वनन नचावै
ललित विकच कंदल कुलकलिका जगमोहन अकुलावै .

श्यामा बोली-"आप तो बड़े प्रेमी और कवि जान पड़ते हैं; पावस की अच्छी छटा दिखाई. आप का वर्णन मेरे जी में धस गया . मैं भी कहती हूँ सुनिये-

जलद पाँति धुनि संपति निज लहि कल आलाप सुहाई
किलकि कलाप कलापिन कुहुकत कोकिल काम कसाई .
बाजत मनौ नगारे सुनि धुनि पावसराज बघाई
श्रुति सुखदायक मोर पपीहा बग पंगति नभ छाई .
नव कदंब रज गगन अरुन करि अंबर सुषमा साजै
कंदल सुमन पराग सुरभिजुत जेहि लहि सब दुख भाजै .
अनुरागिन चित नव नव उपवन पौन प्रेम प्रकटावै
नवल नवेलिन मन मनोज मथि परसि अंग उपजावै ,
नीरद प्रथम नीर के बूंदन मही रहित रज कीन्ही
ताप मिटाय सबै विधि धरनी आँगन सुख दै चीन्ही .
केतक चहुँ सोहत वन वागन जापै भंग गुंजारै
गजरद से अति सेत मनोहर रागिन हृदय विदारै .
घन घन अवलि विघट्टन सों मनु खस्यौ खंड शशिरा
कृशित शिखा अति पथिक शृंग सम पावत गिरत घनेरा .
कुटज पराग सुमन कन निझर चारु बुंद मनु राजे
चूरन ललित दलित मोती सित अनुपम सोभा भ्राजै
मनु दधि रेनु सुहात मनोहर पियत भंग मकरंदा
पावस सुखद समीर डुलावत श्यामा तन सुखकंदा ."