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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६१

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श्यामास्वप्न

श्यामा ने कहा-"बस-बस-मैं सब जान गई–पर तुम यह तो मुझै कहो कि तुम कौन हौ-मुझै बड़ा संदेह होता है-"

मैंने कहा-“अभी तुम अपनी कथा पूरी करो-अंत में कहूँगा जो कुछ कहना है--तुम्हारी कथा यद्यपि दुखदायक है पर सुनने को जी ललचाता है . इस्से जब तक पूरी न सुनावोगी मैं कुछ भी न कहूँगा जैसे इतनी दया कर इतनी कही वैसे ही शेष तक कृपा कर कह डारो".

श्यामा बोली--"श्यामसुंदर की प्रीति दिन दिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा सी बढ़ती गई--बार बार मुझसे समागम हुआ , बार बार मैंने उनकी तपन बुझाई . अब तो वे ऐसे विकल हो गए थे कि बिना मेरे एक छिन भी न रहते . जब देखो तब मेरी ही बात- --मेरा ही ध्यान-- मेरा ही मान--तान में भी मेरा नाम--कविता में भी मैं--श्यामसुंदर के नैनों की तारा---श्यामसुंदर के नैन चकोर की चंद्रिका उनके हृदय-कमल की भ्रमरी-और कहाँ तक कहूँ उनको जो कुछ थी सो मैं ही . उन्होंने ऐसा प्रेम लगाया जिस्का पारावार नहीं .

"जागत सोवत सुपनहू सर सरि चैन कुचैन
सुरति श्यामधन की हिए बिसरे हू बिसरैन ."

और मेरी भी यही दशा हो गई थी

एक दिन श्यामसुंदर प्रातःकाल स्नान को जाते थे , मैं भी नहा के नदी की ओर से आती थी'. हम दोनों गली में मिले . दिन निकल चुका था पर उस समय वहाँ कोई न था . ज्यौंही उनके निकट पहुंची बदन कँप उठा, जाँघे भर आईं और पिडुरी थरथराने लगीं-इतने में सघन