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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६२

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श्यामास्वप्न

मेरी एक और सखी सावित्री नाम की पहुँच गई, हाथ भी कंपने लगे और माथे की गघरी गिर पड़ी , सावित्री ने मुझे थाम्ह लिया नहीं तो मैं भी गिर पड़ती . गधरी तो चूर चूर हो गई . श्यामसुंदर हँस के चले गए . यह भेद किसी ने नहीं समझा . श्यामसुंदर ने उसी दिन मुझे यह लिख भेजा-

तन काँपे लोचन भरे अँसुश्रा झल के प्राय
मनु कदंब फूल्यौ अली हेम वल्लरी जाय
हेम वल्लरी जाय कनक कदली लपिटानी
अति गभीर इक कूप निकट जेहि व्यालि विलानी
निकसि जुगल गिरि तीर जासु पंकज जुग थापे
खेलत खंजन मीन तरल पिय लखि तन कांपे .

यह उन्हीं की रचना थी मैं पढ़ के समझ गई और मनहीं मन मुस- कानी लज्जित हुई . मैंने उनसे कहला भेजा कि इसका अर्थ समझा दो . वे बड़े आनंद से आए मुझे घर में न पाया मैं उस समय सुलोचना और वृंदा के साथ नहाने चली गई थी . श्यामसुंदर घर से फिरे और घाट की ओर चले-वहाँ पहुँचते ही मुझे वहाँ भी न पाया--कारन यह कि मैं तब तक नहा धो अपने घर चली आई . श्यामसुंदर निराश हुए घर लौट गए. ऊधो को बुलाके उरहना दिया--

तरसत श्रौन बिना सुने मीठे वैन तेरे

क्यौं न तिन माहिं सुधा वचन सुनाय जाय

तेरे बिनु मिले भई झाझर सी देह प्रान

रखि ले रे मेरो धाय कंठ लपिटाय जाय

भई न सहि जाय भ्राभ्रर सी देह प्रान

हाहा निरमोही मेरे प्रानन बचाय जाय

प्रीति निरवाहि दया जियमें बसाय

एरे निरदई नेकु दरस दिखाय जाय

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