पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
श्यामास्वप्न

एला बेला लपटी बकुल तमाल
मनु पिय सों आलिंगन करती बाल ।
अमराई में कोकिल कुहकै
धीर नीर के तौरहिं जीवन मूर।

वार ना लगाई सखी लाई सो मिलाई कुंज

जेठ सुदी सात परदोष की घरी घरी,

घेरि घेरि छहरि हिये व्योम आनंदघटा

छाई छिन प्यासी छिति वरस भरी भरी .

थाह ना हरष को प्रवाह जगमोहन जू

गंगा कौ कलिंदी कूल तीरथ तरी तरी.

हरी हरी दूव खूब खुलत कछारन पै

डारन पै कोइल रसालन कुहू करी.

अली शुभ तोरथ तीर लसै मलमांस पवित्र नदी जुग संग,
अनंग के घाट नहाय नसे भलै पातक केचुरी मानो भुजंग,
मनोरथ पूरन पुन्य उदै अपनावै रमा गहि हाथ उमंग,
गिरीश के सीस पयोज चढ़े जगमोहन पावन तौ सब अंग ,

सात जेठ अधिक सुदी बुधवासर परदोष
सुरसरि श्री कालिंदिका कूल फूलमय कोष
कूल फूलमय कोष पुन्यतीरथ जो श्रावै
ताहि रमा गहि आपु दया करिकै अपनावै
बड़े भाग जो पाव परब मजन करि ह्यातें
पातक विनसै मिलै सुपद जगमोहन सातें.

यह कविता उन्होंने बाँचकर मुझै सुनाया और प्रत्यक्षरों का मनोहर मैं उनकी कौन कौन सी कथा कहूँ यदि एक दिन का समाचार एकत्र करके लिखू तो महाभारत से भी बड़ा ग्रंथ बन जाय . अर्थ भी बताया .