पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२७
श्यामास्वप्न

पर वे सदा वियोग के शंकी थे नाना प्रकार के भाव और दाव जी में करते रहे-मुझै बड़ी दयापूर्वक एक अमोल वजू की अंगूठी केवल स्मर- णार्थ दे गए थे . पर मेरा वजू हृदय न पसीजा; एक मन आवै कि लोक लाज छोड़ कर अनन्य भाव से श्यामसुंदर को भजै, एक मन आवै कहीं निकल जाऊँ, एक मन आवै कि जोगिन बन वन वन धूनी रमाती रहूँ- पर थोरी वैस में ए बातें असम्भव थीं-हाँ प्रेमजोगिन बन श्याम- सुंदर के वन में मदन अनल की धनी रमाना संभव था-इतने में वजू गिरा . हायरे दई ! मुझै गर्भ की शंका हुई, वह शंका काल के बीतने से रोज रोज पुष्ट हुई . आज और कल्ह कुछ और था . मैं घबड़ानी, चिहुँकी-जकी सी रह गई . “भई गति साँप छछूदर केरी" न किसी से कहने की और न सुनने की बात थी . कहती किस्से, कहती तो केवल श्यामसुंदर से और उनसे कहना ही पड़ा पर वृंदा और सुलो- चना दोनों जान गई थीं . त्रिजटा भी जानती थी, फैलते फैलते बात ऐसी फैली कि वज़ांग विष्णुशर्मा और मकरंद सभी जान गए . मुझै नहीं मालूम कि मेरे माता पिता भी इसे जानते थे . पर पिताजी तो घर में थे ही नहीं . उन दिनों कार्यवशात् पहले ही से पाताल को चले गए थे . उन्हें मंत्र अच्छे अच्छे आते थे इसी से नाग लोक में जाने में कभी शंकित नहीं हुए . और ब्राह्मणों की कहाँ अगति है . आकाश पाताल और मृत्युलोक तीनों में विचरते रहते हैं. मेरे पिता के परम हितैषी और संबंधी पंडित वजमणि थे . मेरे पिता पाताल जाने के पूर्व ही अपना कुटुंब उनके और श्यामसुंदर के भरोसे छोड़ गए थे . पर सच्चा हितैषी और कृपालु केवल श्यामसुंदर ही था जिसने कभी वंक दृष्टि से हम लोगों को नहीं देखा • दयाछत्र की छाया सदा हमारे दीन मस्तकों पर किए रहे, शत्रुओं ने जब जब क्रोधाग्नि से हमारा दोन परिवार-वन जलाना चाहा वे सदा कवच से हो सहायता का शीतल जल बरसाते रहे . संसार में ऐसा कौन पदार्थ था जो उन्होंने मेरे मागे और बिना मागे नहीं दिया