पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२६
श्यामास्वप्न

राजा रंक फकीर सभी की एक सी गति होगी. जो पहले सरागी नहीं हुआ वह विरागी कैसे होगा . सच तो यही है-

नारि मुई घर संपति नासी
मूंड़ मुड़ाय भए संन्यासी

संन्यासी नहीं सत्यानाशी हैं .

जपमाला छापा तिलक सरे न एको काम ।
मन कांचे नांचे वृथा साचे राचे राम"॥

विषय-भोगतृष्णा-विषय करो, झंडा गाड़ के करो, पर तृप्ति न होगी.

"हविषा कृष्णवत्मव भूय एवाधिवर्द्धते".

संसार तुच्छ है, असार है इसमें संदेह नहीं-मैं कहता हूँ-यह मेरा पुत्र और वह मेरी पुत्री है तो भला यह कहो-तुम कौन हो ? तुम कहाँ से आए-कहाँ रहे-कहाँ हो-और फिर कहाँ चल बसोगे ? कुछ जानते हो कि बिना कान टटोले कौव्वे के पीछे दौड़ चले ? संज्ञा तुम्हारी कहाँ चली गई . ज्ञान तो तुम्हारा अपना कर वह देखो तुम्हें छोड़ भागा जाता है-दौड़ो-दौड़ो पकड़ो जाने न पावै. भला, यह तो हुआ . तुम्हारा बल अपने शरीर पर है या नहीं ? यदि कहो नहीं-तो बस तुम हार गए . फिर तुम्हारा बल और किस पर होगा ? कर्म बंधन हैं-कर्म से मुक्ति नहीं होती-यज्ञ, जप, तप, वेद, पाठ, पूजा, फूल, चंदन, चावर, पाषाण मूर्ति, देवालय, तीर्थ-इन सभों से मुक्ति नहीं-"ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः"-यही सर्वोपरि समझो-किसका ईश्वर और किसका फीश्वर-"ईश्वरासिद्धेः" ईश्वर मुक्त है या बद्ध ? मुक्त है-तो उसे सृष्टि बनाने का प्रयोजन क्या था-नहीं जी कदाचित् बद्ध है-तो बद्ध होने में मूढ़ है-फिर सृष्टि बनाने को सर्वथा असमर्थ है-क्यों क्या कुछ और बोलोगे . आत्मा का ध्यान करो "नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः" "असंगोयं पुरुषः" इत्यादि देखो . शुभाशुभ