पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३२
श्यामास्वप्न

सुनो इस पत्र के प्रत्येक अक्षरों (अक्षर) का कैसा बल है--वाहरे प्रेम- पात्र तेरी बड़ाई क्या करूँ--तू तो मेरा परम सुहृद और आंखों का तारा है . तूने यह कैसी भविष्यवाणी भाषी . मैं तो इस विचित्र आत्मा के संयोग का उदाहरण देख चकित हो गया. आहा ! इसी को सिद्धि कहते हैं . जीव एक है . देखो हजार कोस पर बैठा प्रेमपात्र हमारा भविष्य जान गया-जान ही नहीं गया वरंच लिख भी दिया . यही सच्चे प्रेम का प्रमाण है . ध्यान भी लगाना इसी का नाम है . समाधि भी इसे कहते हैं. मैं प्रेमपात्र का बड़ा भरोसा रखता हूँ. वे मेरे अद्वितीय मित्र और इस जगतीतल में मेरे मानस के एक ही हंस हैं . जैसे चकोर अद्वितीय भाव से चंद्र को-मयूर मेघ को-कमल रवि को और कोइल रसाल को भजते हैं उसी प्रकार मैं साक्षात् मंगल मूर्ति प्रेमपात्र को भजता हूँ-

जिमि मंदर मथि सागरहिं पायो लोकानंद
चंद्र सरिस मंगल मिल्यौ जगमोहन सुखकंद .
जिमि अशेष जग को तिमिर नासत एक मयंक
मंगल मणि शशि हिय तिमिर जगमोहन जिय अंक.
उतफणि मणि वासुकि सिरहिं अहिपुर करहिं प्रकास
इत मंगल मणि मोर हिय पुर लहि दिपत अकास.

उनकी मूर्ति मेरे हृदय पर लिखी है-बस-कहाँ तक लिखू उनकी हमारी प्रीति निबह गई . ईश्वर सभी की ऐसीही निबाहै . मैं तो निराश हो गया . श्यामा ने क्या कहा-स्वम तो नहीं था . प्रत्यक्ष था कि स्वप्न मुझे कुछ भी नहीं मालम-

सुख ना लखात नहीं दुःख हू जनात हमैं,
जागत कै सोवत बतात तुम सो दई।
बैठ्यौ के चलत चित्यौर में लिख्यौ कैघों चित्र,
देह सो विदेह कैधौं अगति दई दई ।