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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१७३

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श्यामास्वप्न

मातौ कै वियोग विषयूंट घुट्यौ मोत मैंने,
मोह सब इंद्रिन विचारत कहा नई।
जीवत कै मरत विकार भरमात अहो,
श्यामा बस कौन जगमोहन दशा भई-"

इतना कह श्यामसुंदर ने आँसू भर लिये . मैंने कहा-

“यही तेरे आँसू गिरत धरनी जर्जर कना
कहौं बात काढूं विखर मनु मोती मन धन
भयो भारी तेरो विरह जिय घेरो घहरि कै
कहै चेतौ मेरो अधर तुम नासा यहरि कै.

श्यामसुंदर ने कहा-'भाई मैं क्या कहूँ मुझसे कुछ कहा नहीं जाता-

विरह अगिन तन बेदना छेद होत सुधि प्राय
जियते नहिं टारी टरै चाह चुरैलिन हाय-

बस अब मेरी कहानी, विनय और विलाप सुनना होय तो विनय पढ़ो-

कुंडलिया

दुसह विरह की आँच सों कैसे बचि हैं प्रान
बिनु संजोग रस के सिंचे श्यामा दरस सुजान
श्यामा दरस सुजान परस तन पाप नसावन
दरद दरन सुख करन अधर मधुन सुपावन
श्री मंगल परसाद लजावत शरद इंदु कह
मुखमयंक तुप बंक अलक अरु भाल विदुंसह"
श्यामा श्यामा नाम को जीह रटत दिन रैन
श्यामा को मूरति अजों टरत न पलभर नैन


  • यह विनय अंत में छपी है।