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पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१८१

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श्यामास्वप्न

लगीं लाल लाल आंखें दिखा दिखा झिड़कने और छिपे प्रेम से उरहने देने और बात कहने .

यथा सवैया,

द्वारिका छाप लगै भुजमूल कह्यौ फल वेद पुरानन तौन है,
कागद ऊपर छाप सुनी जिहि को सिगरे जग जाहिर गौन है;
श्राप लगाई जो कुंकुम की सो सुहाई लगै छबि सों उर भौन है
छाती की छाप को प्यारे पिया कहियै बलि याकौ महातम कौन है.

कोई उत्कंठित होकर यह कहने लगी .

"छपाकर जोति मलीन महा दुति छीन त्यौं तारन की दरसात,
न आए गुपाल कहाँ धौ रहे यह कासो कहों हियरा हहरात;
कहै ललिते तिमि लाज औ काम परी दुौ बीच बनै न बतात
कछू तिय बैन जुबान पै श्राय भले नट कैसे बटा फिर जात."

और कोई तो

"देखि ढुरी पिय की पगिया अलसानि भरी अखियाँ जब जोई,
त्यो ललिते पग के डग डोलत बोलत औरई भाँति बनोई
कैसी बनी छबि अाज की या मन भाई करो बरजै नहिं कोई
खोइए सोय सबै श्रम यौं कहि रूसि कै बाल मसूसि कै रोई."

जैसे सुर लोगों ने सागर को मथि चद्रमा रत्न निकाला था वैसे ही भोर ही अहीर लोग दधि को मथानी से मथि नवनीत के गोले को निकालने लगे.

रात भर दंपतियों का नव निधुवन प्रसंग देखते देखते अनिमिष नैनों से जब दीपक थक गया तब अपने नैनों की जोत मिल मिलाने लगा .

चिरैयाँ अपने बसेरे से उठ लगी च्यों च्यों करने स्वमावस्था में हि (ही) श्यामा का पता न लगा . श्यामसुंदर वही कवित्त कहता कहता वहाँ .