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श्यामास्वप्न

चला जाता था बिचारे को थाह न लगी . न जाने कब तक और कहाँ तक बहैगा , मैं भी तो बिमान सिमान सब छोड़ उसी के (की) खोज में तत्पर था . उसके राग की तान नदी की तरंगों पर लहरा कर वायु से ठक्कर खाती और उसकी प्रत्येक आह की आह ब्रह्मांड में समा कर समस्त लोक में व्याप्त हो स्वयं ब्रह्मा के सिंहासन को भी हिला देती थी . ऐसे अवसर पर श्यामा न जाने किस पर्वत के (की) कंदराओं में जा बची थी कुछ ज्ञात नहीं . उसको श्यामसुंदर का हाल कहनेवाला कोई न ऊधो का पता न था सेवक लोग सब सेवकाई में लगे थे, और किस की गणना थी. भावी प्रबल होती है पर मैंने पीछा न छोड़ा . श्यामा का (की) खोज लगाने के लिए आगे बढ़ा. जल के अनेक प्रकार के जंतुओं के फंदे में गिरता पड़ता चला . थाह न लगी एक भी नौका थी-तीर लगना कठिन था . अभी तो अनेक भ्रम, आवर्त, नाद, हूद, शिला और चट्टानों से ठोकर खानी थी . तीर तो देख भी नहीं पड़ता था . पार करना केवल ईश्वर के हाथ रह गया . मुझे सिवाय बहने के और कुछ नहीं सूझता था-बस फिर क्या पूछिए बह चला . बह गया . पता नहीं-ठीक नहीं, तरंगों ने अपने हाथों में उपगृहन कर लिया . मैं तो चाहता था कि या तो पार लगै या बही जाऊँ . एक बार जोर मारा-दस बीस हाथ बह कर उस शिखर की ओर मुड़ा फिर बीस हाथ तैरा--तीस हाथ गया-चालीस हाथ जाकर पचास हाथ पर शिखर हाथ लगा . सांस लेने का स्थान तो मिला. शिखर पर चढ़ते ही छींक हुई पर इसकी क्या चिंता सन्मुख की छींक सदा लाभदायक होती हैं, इस शिखर पर अशोक के वृक्ष तरे सिंहासन मात्र था . इसे भली भाँति देखा भाला, यहाँ वही श्यामा का सिंहासन था दैवयोग से श्यामा न थी . अभी तक न तो श्यामा और न श्याम- सुंदर का पता था . नदी के बीचो बीच का शिखर-पहले थल था पर अब जल हो जाने के हेतु कोई जंतु भी नहीं है . भयंकर बन सांय सांय बह गया